डॉक्टर गौरी शंकर हीराचंद ओझा के जन्मदिवस पर विशेष लेख प्रकाशित कर रहे हैं महावीर सिंघल जी

15 सितम्बर/जन्म-दिवस शीर्षस्थ पुरातत्ववेत्ता : डा. गौरीशंकर हीराचंद ओझा इतिहास और पुरातत्व के शीर्षस्थ विद्वान डा. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा की गिनती प्रमुख इतिहासकारों में होती है। जिन दिनों सब ओर भारतीय इतिहास को अंग्रेजी चश्मे से ही देखने का प्रचलन था, उन दिनों उन्होंने अपने शोध के बल पर राजस्थान का सही इतिहास विश्व के सम्मुख प्रस्तुत किया। गौरीशंकर जी का जन्म 15 सितम्बर, 1863 को ग्राम रोहिडा (सिरोही, राजस्थान) में हुआ था। इनके पूर्वज मेवाड़ के निवासी थे; पर लगभग 225 वर्ष पूर्व वे इस गाँव में आकर बस गये थे। इनके पिता का नाम पण्डित हीराचन्द ओझा था। सात साल की अवस्था में इन्हें हिन्दी पढ़ायी गयी। यज्ञोपवीत संस्कार होने के बाद इन्होंने गणित, संस्कृत और वेदों का अध्ययन किया। शुक्ल यजुर्वेद की सम्पूर्ण संहिता इन्हें कण्ठस्थ हो गयी थी। 14 वर्ष की अवस्था में इन्होंने मुम्बई के एल्फिंस्टन हाई स्कूल में प्रवेश लिया और वहाँ से 1884 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। पण्डित गट्टलाल जी से इन्होंने संस्कृत और प्राकृत भाषाओं का विशेष ज्ञान प्राप्त किया। 1886 में उच्च शिक्षा के लिए इन्होंने विल्सन कॉलेज में प्रवेश लिया; पर स्वास्थ्य बिगड़ने के कारण अपने गाँव लौट गये। अध्ययन के दौरान उन्होंने पाया कि इतिहास के लिए सबको अंग्रेज लेखकों की पुस्तकें ही पढ़नी पड़ती हैं। अंग्रेजों ने जानबूझ कर इतिहास इस प्रकार लिखा था, जिससे भारतीयों के मन में अपने पूर्वजों के प्रति घृणा उत्पन्न हो। इससे गौरीशंकर जी के मन को बहुत चोट लगी। उन्होंने स्वयं इस क्षेत्र में काम करने का निश्चय किया। इसलिए दो साल बाद वे फिर मुम्बई आ गये और प्राचीन लिपियों तथा ग्रन्थों के अध्ययन में जुट गये। 1888 ई. में इनकी भेंट कविराज श्यामलदास से हुई। उनके ज्ञान एवं गुणों से प्रभावित होेकर उन्होंने गौरीशंकर जी को अपने इतिहास कार्यालय में मन्त्री नियुक्त कर लिया। यहाँ रहकर उनका पूरा समय राजस्थान के इतिहास के अध्ययन में बीतने लगा। 1890 में वे विक्टोरिया हॉल स्थित म्यूजियम लाइब्रेरी तथा फिर अजमेर के सरकारी म्यूजियम के भी अध्यक्ष बने। 1893 में गौरीशंकर जी ने ‘प्राचीन लिपिमाला’ नामक पुस्तक लिखी। यह आज भी प्राचीन लिपियों के अध्ययन में छात्रों को ठोस सामग्री उपलब्ध कराती है। 1902 में उन्होंने कर्नल टाड का जीवन चरित्र लिखा। राजस्थान के बारे में कर्नल टाड के ग्रन्थों को ही अधिकृत माना जाता है; पर उसकी दृष्टि शुद्ध नहीं थी। उसकी कपोल कल्पनाओं का तार्किक खण्डन करते हुए गौरीशंकर जी ने स्पष्ट टिप्पणियाँ कीं। प्रारम्भ में इस ओर विद्वानों ने ध्यान नहीं दिया; पर फिर सबको उनकी बात माननी पड़ी। इसके बाद उन्होंने ‘ऐतिहासिक ग्रन्थमाला’ लिखी तथा ‘पृथ्वीराज विजय’ नामक काव्य ग्रन्थ का सम्पादन किया। उनके प्रयासों से शौर्य और बलिदान की भूमि राजस्थान के वे गौरवपूर्ण प्रसंग प्रकाश में आये, जिन्हें अंग्रेजों ने जानबूझ कर छिपाया था। डा. ओझा की पुस्तकों ने इतिहास के क्षेत्र में हलचल मचा दी। इनकी विशेषता यह थी कि वे निबन्ध शैली में लिखी गयी हैं। इसलिए उन्हें पढ़ते हुए रोचकता बनी रहती है। उनकी अन्य प्रमुख पुस्तकें हैं - ओझा निबन्ध संग्रह, नागरी अंक और अक्षर, मध्यकालीन भारतीय संस्कृति, मुँहणीत नेणासी की ख्यात, महाराणा प्रताप सिंह: ऐतिहासिक जीवनी, सिरोही राज्य का इतिहास। .............................. 15 सितम्बर/जन्म-दिवस आधुनिक विश्वकर्मा : विश्वेश्वरैया आधुनिक भारत के विश्वकर्मा श्री मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया का जन्म 15 सितम्बर, 1861 को कर्नाटक के मैसूर जिले में मुदेनाहल्ली ग्राम में पण्डित श्रीनिवास शास्त्री के घर हुआ था। निर्धनता के कारण विश्वेश्वरैया ने घर पर रहकर ही अपने परिश्रम से प्राथमिक स्तर की पढ़ाई की। जब ये 15 वर्ष के थे, तब इनके पिता का देहान्त हो गया। इस पर ये अपने एक सम्बन्धी के घर बंगलौर आ गये। घर छोटा होने के कारण ये रात को मन्दिर में सोते थे। कुछ छात्रों को ट्यूशन पढ़ाकर इन्होंने पढ़ाई का खर्च निकाला। मैट्रिक और बी.ए. के बाद इन्होंने मुम्बई विश्वविद्यालय से अभियन्ता की परीक्षा सर्वोच्च स्थान लेकर उत्तीर्ण की। इस पर इन्हें तुरन्त ही सहायक अभियन्ता की नौकरी मिल गयी। उन दिनों प्रमुख स्थानों पर अंग्रेज अभियन्ता ही रखे जाते थे। भारतीयों को उनका सहायक बनकर ही काम करना पड़ता था; पर विश्वेश्वरैया ने हिम्मत नहीं हारी। प्रारम्भ में इन्हें पूना जिले की सिंचाई व्यवस्था सुधारने की जिम्मेदारी मिली। इन्होंने वहाँ बने पुराने बाँध में स्वचालित फाटक लगाकर ऐसे सुधार किये कि अंग्रेज अधिकारी भी इनकी बुद्धि का लोहा मान गये। ऐसे ही फाटक आगे चलकर ग्वालियर और मैसूर में भी लगाये गये। कुछ समय के लिए नौकरी से त्यागपत्र देकर श्री विश्वेश्वरैया विदेश भ्रमण के लिए चले गये। वहाँ उन्होंने नयी तकनीकों का अध्ययन किया। वहाँ से लौटकर 1909 में उन्होंने हैदराबाद में बाढ़ से बचाव की योजना बनायी। इसे पूरा करते ही उन्हें मैसूर राज्य का मुख्य अभियन्ता बना दिया गया। उनके काम से प्रभावित होकर मैसूर नरेश ने उन्हें राज्य का मुख्य दीवान बना दिया। यद्यपि उनका प्रशासन से कभी सम्बन्ध नहीं रहा था; पर इस पद पर रहते हुए उन्होंने अनेक जनहित के काम किये। इस कारण वे नये मैसूर के निर्माता कहे जाते हैं। मैसूर भ्रमण पर जाने वाले 'वृन्दावन गार्डन' अवश्य जाते हैं। यह योजना भी उनके मस्तिष्क की ही उपज थी विश्वेश्वरैया ने सिंचाई के लिए कृष्णराज सागर और लौह उत्पादन के लिए भद्रावती का इस्पात कारखाना बनवाया।मैसूर विश्वविद्यालय तथा बैंक ऑफ़ मैसूर की स्थापना भी उन्हीं के प्रयासों से हुई। वे बहुत अनुशासन प्रिय व्यक्ति थे। वे एक मिनट भी व्यर्थ नहीं जाने देते थे। वे किसी कार्यक्रम में समय से पहले या देर से नहीं पहुँचते थे। वे अपने पास सदा एक नोटबुक और लेखनी रखते थे। जैसे ही वे कोई नयी बात वे देखते या कोई नया विचार उन्हें सूझता, वे उसे तुरन्त लिख लेते। विश्वेश्वरैया निडर देशभक्त भी थे। मैसूर का दशहरा प्रसिद्ध है। उस समय होने वाले दरबार में अंग्रेज अतिथियों को कुर्सियों पर बैठाया जाता था, जबकि भारतीय धरती पर बैठते थे। विश्वेश्वरैया ने इस व्यवस्था को बदलकर सबके लिए कुर्सियाँ लगवायीं। उनकी सेवाओं के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए शासन ने 1955 में उन्हें ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया। शतायु होने पर उन पर डाक टिकट जारी किया गया। जब उनके दीर्घ एवं सफल जीवन का रहस्य पूछा गया, तो उन्होंने कहा - मैं हर काम समय पर करता हूँ। समय पर खाता, सोता और व्यायाम करता हूँ। मैं क्रोध से भी सदा दूर रहता हूँ। 101 वर्ष की आयु में 14 अप्रैल, 1962 को उनका देहान्त हुआ। ....................................... 15 सितम्बर/जन्म-दिवस प्रखर पत्रकार : रूसी करंजिया पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतिष्ठा वही पाते हैं, जो भयभीत हुए बिना अपने सिद्धान्तों के पक्ष में खड़े रहें। रूसी करंजिया लम्बे समय तक वामपन्थ के समर्थक रहे; पर उसका खोखलापन समझ आने पर वे उसके प्रबल विरोधी भी हो गये। मुम्बई में 15 सितम्बर, 1912 को एक पारसी परिवार में जन्मे रूसी खुरशेदजी करंजिया ने पत्रकारिता का प्रारम्भ ‘टाइम्स ऑफ़ इण्डिया’ से किया। उसमें उनकी टिप्पणियों की सर्वत्र सराहना होती थी। खोजी पत्रकारिता की ओर रुझान होने पर उन्होंने व्यवस्था को चोट पहुँचानेवाले हर समाचार को ढूँढकर प्रकाशित करने के लिए अंग्रेजी में एक फरवरी, 1941 से ‘ब्लिट्ज’ समाचार पत्र प्रारम्भ किया। थोड़े ही समय में ब्लिट्ज ने अपनी पहचान बना ली। उस समय देश में नेहरूवाद अर्थात् वामपन्थ और रूस समर्थन की लहर बह रही थी। नेहरूवादी होते हुए भी वे शासन की कमियों और विफलताओं को सामने लाये। ‘ब्लिट्ज’ का अर्थ ही है आक्रमण या चढ़ाई। श्री करंजिया ने अपने पत्र की ऐसी ही प्रतिष्ठा बनाई। उसके मुखपृष्ठ का लाल रंग उनके वामपन्थी विचारों को स्पष्ट दर्शाता था। उनका विश्व के तत्कालीन सब बड़े नेताओं से सम्पर्क था। वे उनसे सीधा संवाद कर उसे अपने पत्र ‘ब्लिट्ज’ में छापते थेे। छोटे से छोटे और बड़े से बड़े व्यक्ति से मिलने में वे कभी संकोच नहीं करते थे। ब्लिट्ज के मालिक होने के बाद भी वे द्वितीय विश्व युद्ध के समाचार संकलन के लिए स्वयं असम एवं बर्मा गये। इन्हीं गुणों के कारण वे लगभग 50 साल तक समाचार जगत में छाये रहे। श्री करंजिया के जीवन के उत्तरार्ध में एक भारी मोड़ आया। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा के कट्टर विरोधी थे। इन्दिरा गांधी ने उन्हें विदेश विभाग से सम्बद्ध कर चीन से सम्बन्ध सुधारने के काम में लगाया। इसके लिए उन्होंने कई बार चीन का प्रवास किया। जब आपात्काल के बाद दिल्ली में मोरारजी भाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी, तो श्री करंजिया अपना त्यागपत्र लेकर तत्कालीन विदेश मन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के पास पहुँचे। अटल जी ने कहा कि आपका काम देशहित में ही था। अतः अपना काम करते रहें, त्यागपत्र देने की आवश्यकता नहीं है। अटल जी की इस बात ने उनका जीवन बदल दिया। उन्होंने अटल जी की न जाने कितनी बार घटिया आलोचना की थी; पर संघ परिवार के इस व्यक्ति का मन इतना उदार होगा, ऐसी उन्हें कल्पना नहीं थी। उन्हें अपनी वामपन्थी विचारधारा और जीवन लक्ष्य के बारे में फिर से सोचना पड़ा। उन्हें लगा कि जिस विचार से वह पिछले 60 साल से जुड़े थे, वह निरर्थक है। कुछ समय बाद ‘ब्लिट्ज’ भी बन्द हो गया। 1980 में उन्होंने ‘द डेली’ नामक दैनिक पत्र निकाला; पर वह अधिक नहीं चल पाया। 60 साल की अवस्था में वे भारतीय योग की ओर आकर्षित हुए और कठिन योग, यहाँ तक कि कुंडलिनी साधने में भी सफल हुए। वे बिहार स्थित परमहन्स योगानन्द विद्यालय के अनुयायी बने और कुंडलिनी योग पर एक पुस्तक भी लिखी। एक समय वे संसद की अवमानना के दोषी ठहराये गये थे; पर बाद में वे राज्यसभा के सदस्य भी बने। वे अपने समाचार पत्र के लाभांश में से सब कर्मचारियों को हिस्सा देते थे तथा किसी कर्मचारी के असामयिक निधन होने पर उसके परिवार की हरसम्भव सहायता करते थे। इस प्रकार उन्होंने हर काम पूर्णता से करने का प्रयास किया। 95 वर्ष की दीर्घ अवस्था में एक फरवरी, 2008 को इस प्रखर, निर्भीक एवं सत्यान्वेषी पत्रकार का मुम्बई में ही देहान्त हुआ। ................................................. 15 सितम्बर/पुण्य-तिथि सेवा के दीप : डा. राकेश पोपली श्रीमद भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने व्यक्ति के स्वधर्म की चर्चा की है। यहाँ स्वधर्म का अर्थ किसी विशिष्ट पूजा पद्धति से नहीं है। स्वधर्म से उनका अभिप्राय है कि हर व्यक्ति अपना एक विशिष्ट स्वभाव लेकर जन्म लेता है। भले ही उसकी शिक्षा-दीक्षा या कारोबार कुछ भी हो; पर कुछ कार्यों में उसे स्वाभाविक आनन्द और सन्तुष्टि मिलती है। डा. राकेश पोपली एक ऐसे ही व्यक्ति थे, जिन्हें सेवा धर्म स्वभाव में मिला था। डा. राकेश पोपली मूलतः शिक्षाशास्त्री थे। बचपन से ही वे कुशाग्र बुद्धि के छात्र थे। अपनी कक्षा में सदा सबसे आगे रहते हुए केवल पढ़ाई में ही नहीं, तो विद्यालय की अन्य सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में भी वे सदा सक्रिय रहते थे। स्वाभाविक रूप से ऐसे छात्र को गुरुजनों का आशीर्वाद भी भरपूर मिलता है। डा. पोपली ऐसे ही सौभाग्यशाली छात्र थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा दिल्ली में हुई। उच्च शिक्षा पाकर उन्होंने अमरीका के विश्वप्रसिद्ध परड्यू विश्वविद्यालय से परमाणु विज्ञान में डाक्टरेट की उपाधि ली। इसके बाद उनके लिए अमरीका में नौकरी एवं शोध के भव्य द्वार खुले थे; पर उनके मन में तो अपने देश और देशवासियों की सेवा का भाव बसा था। इसलिए वे आई.आई.टी, कानपुर में प्राध्यापक हो गये। अध्यापक रहते हुए भी वे कानपुर की निर्धन बस्तियों में जाते थे। उनका मत था कि निर्धन वर्ग में भी प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि उन्हें शिक्षा के समुचित अवसर और वातावरण मिले; साथ ही कोई सहानुभूतिपूर्वक उनका मार्गदर्शन करे। वे स्वयं तो इस काम में लगे ही, अनेक मित्रों को भी इससे जोड़ा। इसके बाद भी उनके मन को सम्पूर्ण सन्तुष्टि नहीं थी। वे इससे भी अधिक करना चाहते थे। 1982 में उच्च शिक्षा प्राप्त महेश शर्मा, अशोक भगत आदि युवकों ने झारखण्ड के अत्यधिक पिछड़े वनवासी क्षेत्र बिशुनपुर के सम्पूर्ण विकास को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। इनका मत था कि केवल बाहरी सहायता से ही किसी क्षेत्र का विकास नहीं हो सकता। विकास का सही अर्थ है स्थानीय संसाधन एवं परम्पराओं को पुनर्जीवित कर क्षेत्रवासियों के आत्मविश्वास का जागरण। इसके लिए ‘विकास भारती, बिशुनपुर’ का गठन किया गया। डा. राकेश पोपली प्रारम्भ से ही इस प्रकल्प के साथ जुड़ गये। 1984 में डा. पोपली बी.आई.टी मेसरा (राँची) में व्यावहारिक भौतिकी के प्राध्यापक हो गये। इसके साथ ही वे लोक विज्ञान और वनवासी क्षेत्र में बाल शिक्षा पर शोध भी करते रहे। उन्होंने और उनकी पत्नी रमा पोपली ने मिलकर ग्राम एवं निर्धन बस्तियों के लिए ‘एकल विद्यालय’ की सम्पूर्ण पद्यति विकसित की। स्थानीय संसाधनों का उपयोग कर उन्होंने ‘ध्वनि वाचन’ और ‘अष्टशील’ का सफल प्रयोग किया। आज पूरे देश में एकल विद्यालयों का जो जाल फैला है, उसके पीछे पोपली दम्पति की ही साधना है। डा. राकेश पोपली ने अनेक समाजोपयोगी पुस्तकें लिखीं। वे सेवा कार्य की इस विधा को और विकसित करना चाहते थे; पर दुर्भाग्य से उन्हें कैंसर रोग ने घेर लिया। तीन साल तक वे इससे लड़ते रहे। परिवारजनों और मित्रों की प्रेमपूर्ण सहानुभूति और चिकित्सकों की दवाओं के बावजूद 15 सितम्बर, 2007 को जयपुर में सेवा का यह दीप सदा के लिए बुझ गया। इस प्रकार के भाव पूण्य संदेश के लेखक एवं भेजने वाले महावीर सिघंल मो 9897230196


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