एकात्मक पुजारी नारायण गुरु के जन्मदिन पर विशेष महावीर संगल

20 सितम्बर/पुण्य-तिथि एकात्मता के पुजारी : नारायण गुरु हिन्दू धर्म विश्व का सर्वश्रेष्ठ धर्म है; पर छुआछूत और ऊंचनीच जैसी कुरीतियों के कारण हमें नीचा भी देखना पड़ता है। इसका सबसे अधिक प्रकोप किसी समय केरल में था। इससे संघर्ष कर एकात्मता का संचार करने वाले श्री नारायण गुरु का जन्म 1856 ई. में तिरुअनंतपुरम् के पास चेम्बा जनती कस्बे में ऐजवा जाति के श्री मदन एवं श्रीमती कुट्टी के घर में हुआ था। नारायण के पिता अध्यापक एवं वैद्य थे; पर प्राथमिक शिक्षा के बाद कोई व्यवस्था न होने से वे अपने साथियों के साथ गाय चराने जाने लगे। वे इस दौरान संस्कृत श्लोक याद करते रहते थे। कुछ समय बाद वे खेती में भी हाथ बंटाने लगे। 1876 में गुरुकुल में भर्ती होकर उनकी शिक्षा फिर प्रारम्भ हुई। वे खेलकूद का समय प्रार्थना एवं ध्यान में बिताते थे। स्वास्थ्य खराबी के कारण उनकी शिक्षा पूरी नहीं हो सकी। घर आकर उन्होंने एक विद्यालय खोल लिया। इसी समय उन्होंने काव्य रचना और गीता पर प्रवचन भी प्रारम्भ कर दिये। उन्होंने गृहस्थ जीवन के बंधन में बंधने से मना कर दिया। अध्यात्म एवं एकांत प्रेमी नारायण भोजन, आवास और हिंसक पशुओं की चिन्ता किये बिना जंगलों में साधनारत रहते थे। अतः लोग उन्हें चमत्कारी पुरुष मानकर स्वामी जी एवं नारायण गुरु कहने लगे। यह देखकर ईसाई और मुसलमान विद्वानों ने उन्हें धर्मान्तरित करने का प्रयास किया; पर वे सफल नहीं हुए। 1888 में वे नयार नदी के पास अरूबीपुर में साधना करने लगे। वहां उन्होंने शिवरात्रि पर मंदिर बनाने की घोषणा की। आधी रात में भक्तों की भीड़ के बीच वे नदी में से एक शिवलिंग लेकर आये और उसे वैदिक मंत्रों के साथ एक चट्टान पर स्थापित कर दिया। इस प्रकार अरूबीपुर नूतन तीर्थ बन गया। कई लोगों ने यह कहकर इसका विरोध किया कि छोटी जाति के व्यक्ति को मूर्ति स्थापना का अधिकार नहीं है; पर स्वामी जी चुपचाप काम में लगे रहे। समाज सुधार के अगले चरण के रूप में 100 से अधिक मंदिरों से उन्होंने मदिरा एवं पक्षीबलि से जुड़े देवताओं की मूर्तियां हटवा कर शिव, गणेश और सुब्रह्मण्यम की मूर्तियां स्थापित कीं। उन्होंने नये मंदिर भी बनवाये, जो उद्यान, विद्यालय एवं पुस्तकालय युक्त होते थे। इनके पुजारी तथाकथित छोटी जातियों के होते थे; पर उन्हें तंत्र, मंत्र एवं शास्त्रों का नौ साल का प्रशिक्षण दिया जाता था। मंदिर की आय का उपयोग विद्यालयों में होता था। दिन भर काम में व्यस्त रहने वालों के लिए रात्रि पाठशालाएं खोली गयीं। अनेक तीर्थों में अनुष्ठानों की उचित व्यवस्था कर पंडों द्वारा की जाने वाली ठगाई को बंद किया। बरकला की शिवगिरी पहाड़ी पर उन्होंने ‘शारदा मठम्’ नामक वैदिक विद्यालय एवं सरस्वती मंदिर की स्थापना की। इसी प्रकार अलवै में ‘अद्वैत आश्रम’ बनाया। 1924 ई. की शिवरात्रि को स्वामी जी ने अलवै में सर्वधर्म सम्मेलन कर सब धर्मों को जानने का आग्रह किया। वे तर्क-वितर्क और कुतर्क से दूर रहते थे। इससे लोगों के विचार बदलने लगे। ‘वैकोम सत्याग्रह’ के माध्यम से कई मंदिरों एवं उनके पास की सड़कों पर सब जाति वालों का मुक्त प्रवेश होने लगा। इसमें उच्च जातियों के लोग भी सहभागी हुए। यह सुनकर गांधी जी उनसे मिलने आये और उन्हें ‘पवित्र आत्मा’ कहकर सम्मानित किया। स्वामी जी ने सहभोज, अंतरजातीय विवाह तथा कर्मकांड रहित सस्ते विवाहों का प्रचलन किया। बाल विवाह तथा वयस्क होने पर कन्या के पिता द्वारा दिये जाने वाले भोज को बंद कराया। उन्होंने अपने विचारों के प्रसार हेतु ‘विवेक उदयम्’ पत्रिका प्रारम्भ की। 20 सितम्बर, 1928 को एकात्मता के इस पुजारी का देहांत हुआ। केरल में उनके द्वारा स्थापित मंदिर, आश्रम तथा संस्थाएं समाज सुधार के उनके काम को आगे बढ़ा रही हैं। (संदर्भ : नररत्न नारायण गुरु - वीरेश्वर द्विवेदी) .................................. 20 सितम्बर/जन्म-दिवस गायत्री के आराधक : आचार्य श्रीराम शर्मा गायत्री परिवार नामक संस्था के संस्थापक आचार्य श्रीराम शर्मा का जन्म 20 सितम्बर, 1911 को ग्राम आँवलखेड़ा (जिला आगरा, उ.प्र.) में हुआ था। यद्यपि वे एक जमींदार घराने में जन्मे थे; पर उनका मन प्रारम्भ से ही अध्यात्म साधना के साथ-साथ निर्धन एवं निर्बल की पीड़ा के प्रति संवेदनशील था। जब गाँव की एक हरिजन महिला कुष्ठ से पीड़ित हो गयी, तो बालक श्रीराम ने घर वालों का विरोध सहकर भी उसकी भरपूर सेवा की। उस महिला ने स्वस्थ होकर उन्हें ढेरों आशीर्वाद दिये। 15 वर्ष की अवस्था में वसन्त पंचमी पर काशी में पण्डित मदनमोहन मालवीय ने बालक श्रीराम को गायत्री की दीक्षा दी। तबसे उनका जीवन बदल गया। उसी समय उन्हें अदृश्य छायारूप में अपनी गुरुसत्ता के दर्शन हुए, जिसने उन्हें हिमालय आकर गायत्री की साधना करने का आदेश दिया। उनका आदेश पाकर वे हिमालय जाकर कठोर तप में लीन हो गये। वहाँ से लौटकर वे समाजसेवा के साथ स्वतन्त्रता आन्दोलन में भी कूद पड़े। नमक आन्दोलन के दौरान सत्याग्रह करने वे आगरा गये। पुलिस ने उनसे तिरंगा छीनने का बहुत प्रयास किया। उन्हें पीटा गया; पर उन्होंने झण्डा नहीं छोड़ा। उन्होंने झण्डा मुँह में दबा लिया, जिसके टुकड़े उनके बेहोश होने के बाद ही मुँह से निकाले जा सके। इस कारण उन्हें श्रीराम ‘मत्त’ नाम मिला। 1935 के बाद उनके जीवन का नया दौर शुरू हुआ। वे ऋषि अरविन्द से मिलने पांडिचेरी, श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिलने शान्ति निकेतन तथा गांधी जी से मिलने सेवाग्राम गये। वहाँ से लौटकर उन्होंने ‘अखण्ड ज्योति’ नामक मासिक पत्रिका प्रारम्भ की। आज भी यह लाखों की संख्या में भारत की अनेक भाषाओं में छप रही है। इसी बीच वे समय-समय पर हिमालय पर जाकर साधना एवं अनुष्ठान भी करते रहे। गायत्री तपोभूमि, मथुरा और शान्तिकुंज, हरिद्वार को उन्होंने अपने क्रियाकलापों का केन्द्र बनाया। वहाँ हिमालय के किसी पवित्र स्थान से लायी गयी ‘अखण्ड ज्योति’ का दीपक आज भी निरन्तर प्रज्वलित है। आचार्य श्रीराम शर्मा जी का मत था कि पठन-पाठन तथा यज्ञ करने एवं कराने का अधिकार सभी को है। अतः उन्होंने 1958 में कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर दस लाख लोगों को गायत्री की दीक्षा दी। इसमें सभी वर्ग, वर्ण और अवस्था के लोग शामिल थे। उनके कार्यक्रमों की एक विशेषता यह थी कि वे सबसे सपरिवार आने का आग्रह करते थे। इस प्रकार केवल घर-गृहस्थी में उलझी नारियों को भी उन्होंने समाजसेवा एवं अध्यात्म की ओर मोड़ा। नारी शक्ति के जागरण से सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि इससे परिवारों का वातावरण सुधरने लगा। आचार्य जी ने वेद, पुराण, उपनिषद, स्मृति, आरण्यक, ब्राह्मण ग्रन्थ, योगवाशिष्ठ, तन्त्र एवं मन्त्र महाविज्ञान आदि सैकड़ों ग्रन्थों की व्याख्याएँ लिखीं। वे बीच-बीच में साधना के लिए जाते रहते थे। इस दौरान सारा कार्य उनकी धर्मपत्नी श्रीमती भगवती देवी सँभालती थीं। इसमें से ही ‘युग निर्माण योजना’ जैसे प्रकल्प का जन्म हुआ। इसके द्वारा आयोजित यज्ञ में सब भाग लेते हैं। अवैज्ञानिक एवं कालबाह्य हो चुकी सामाजिक रूढ़ियों के बदले नयी मान्यताएँ स्थापित करने का यह एक सार्थक प्रयास है। दो जून, 1990 को गायत्री जयन्ती पर आचार्य जी ने स्वयं को परमसत्ता में विलीन कर लिया। ............................... 20 सितम्बर/पुण्य-तिथि देश से दूर प्राणान्त : मौलाना बरकतउल्ला भारतीय स्वतन्त्रता का संघर्ष स्वयं में अभूतपूर्व था। जहाँ एक ओर यह देश के अन्दर लड़ा गया, वहाँ देश से बाहर भी इसके लिए लड़ने वालों की कमी नहीं थी। अनेक नेता एवं क्रान्तिकारी ऐसे भी थे, जिन्होंने विदेशी धरती पर अन्तिम साँस ली। ऐसे ही एक स्वतन्त्रता सेनानी थे मौलाना बरकतउल्ला। बरकतउल्ला का जन्म भोपाल में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण कर वे उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड चले गये। वहाँ से कुछ साल बाद वे लिवरपूल गये और वहाँ विश्वविद्यालय से सम्बद्ध ओरियण्टल कॉलेज में अरबी भाषा एवं साहित्य के प्राध्यापक बन गये; पर उनका उद्देश्य पढ़ाना मात्र नहीं था। उनके मन में तो भारत की स्वतन्त्रता का सपना पल रहा था। वे ऐसे लोगों की तलाश में लग गयेे, जो इस कार्य में उन्हें राह दिखा सकें। कहते हैं जिन खोजा, तिन पाइयाँ। सौभाग्य से उनकी भेंट प्रख्यात क्रान्तिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा से हो गयी, जो विदेशों में भारत की स्वतन्त्रता के लिए प्रयासरत थे। अब वे श्यामजी के निर्देश पर काम करने लगे। इंग्लैण्ड में 11 वर्ष बिताकर वे न्यूयार्क चले गये। वहाँ उन्हें अरबी भाषा पढ़ाने का काम मिल गया। इसके बाद वे एक प्रतिनिधिमण्डल के साथ जापान गये, तो टोक्यो विश्वविद्यालय में उन्हें उर्दू का प्राध्यापक नियुक्त कर दिया गया। यहाँ उन्होंने जापानी और अंग्रेजी भाषा में ‘इस्लामिक फ्रैटर्निटी’ नामक पत्र निकाला। इसके द्वारा वे ब्रिटिश साम्राज्य की नीतियों का खुला विरोध करने लगे। धीरे-धीरे इस पत्र और मौलाना बरकतुल्ला की लोकप्रियता बढ़ने लगी। इस पर ब्रिटिश राजदूत ने जापान सरकार पर उन्हें हटाने के लिए दबाव डाला। जापान शासन को मजबूर होकर इन्हें विश्वविद्यालय की सेवा से मुक्त करना पड़ा। इस पर वे फ्रान्स आ गये और चौधरी रहमत अली तथा पण्डित रामचन्द्र के साथ ‘इन्कलाब’ नामक पत्र निकालने में सहयोग करने लगे; पर कुछ समय बाद उन्हें फ्रान्स भी छोड़ना पड़ा। अब वे कैलिफोर्निया के प्रमुख नगर सैनफ्रान्सिस्को आ गये। यहाँ उनका सम्पर्क भाई परमानन्द और लाला हरदयाल से हुआ। इन तीनों ने अमरीका और कनाडा के प्रमुख नगरों में सभाएँ कीं। इससे इन देशों में भारत की स्वतन्त्रता का मामला गरमाने लगा और बड़ी संख्या में प्रवासी भारतीय इनके साथ जुड़ने लगे। इन नगरों के गुरुद्वारे आजादी के प्रयासों के केन्द्र बन गये। इसी के परिणामस्वरूप आगे चलकर ‘गदर पार्टी’ का जन्म हुआ, जिसने विदेशों में क्रान्ति की अलख जगाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। 1857 की क्रान्ति की स्मृति में वहाँ जो सभा हुई, उसमें पहली बार 1,500 डॉलर एकत्र हुए। मौलाना बरकतउल्ला ने वहाँ जो भाषण दिया, वह बहुत चर्चित हुआ। आगे चलकर जब काबुल में भारत की पहली अन्तरिम निर्वासित सरकार का गठन हुआ, तो क्रान्तिकारी राजा महेन्द्र प्रताप को राष्ट्रपति और मौलाना बरकतउल्ला को प्रधानमन्त्री बनाया गया। 1927 में ब्रुसेल्स के साम्राज्यवाद विरोधी सम्मेलन में गदर पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में बरकतउल्ला सम्मिलित हुए। वहाँ से लौटकर वे बहुत बीमार पड़ गये। 20 सितम्बर, 1927 को उनका देहान्त हो गया और कैलिफोर्निया में ही उन्हें दफना दिया गया। मौलाना ने परतन्त्र भारत की धरती पर पैर न रखने की शपथ ली थी। इसे उन्होंने अन्तिम समय तक निभाया। .............................. 20 सितम्बर/पुण्य-तिथि संस्कृति के संवाहक : डा. हरवंशलाल ओबराय भारत में अनेक मनीषी ऐसे हुए हैं, जिन्होंने दुनिया के अन्य देशों में जाकर भारतीय धर्म एवं संस्कृति का प्रचार किया। बहुमुखी प्रतिभा के धनी डा. हरवंशलाल ओबराय ऐसे ही एक विद्वान् थे, जो एक दुर्घटना के कारण असमय ही दुनिया छोड़ गये। डा. हरवंशलाल का जन्म 1926 में वर्तमान पाकिस्तान के एक गाँव में हुआ था। प्रारम्भ से ही उनकी रुचि हिन्दू धर्म के अध्ययन के प्रति अत्यधिक थी। 1947 में देश विभाजन के बाद वे अपनी माता जी एवं छह भाई-बहिनों सहित भारत आ गये। यहाँ उन्होंने सम्मानपूर्वक हिन्दी साहित्य, भारतीय संस्कृति (इण्डोलॉजी) एवं दर्शनशास्त्र में एम.ए. किया। इसके बाद 1948 में उन्होंने दर्शनशास्त्र में पी-एच.डी. पूर्ण की। इस दौरान उनका स्वतन्त्र अध्ययन भी चलता रहा और वे प्राच्य विद्या के अधिकारी विद्वान माने जाने लगे। सामाजिक क्षेत्र में वे 'अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद' से जुड़े और 1960 एवं 61 में उसके अध्यक्ष रहे। 1963 में यूनेस्को के निमन्त्रण पर वे यूरोप, अमरीका, कनाडा और एशियाई देशों में भारतीय संस्कृति पर व्याख्यान देने के लिए गये। इसके बाद भी उनका विदेश यात्राओं का क्रम चलता रहा। उन्होंने 105 देशों की यात्रा की। हर यात्रा में वे उस देश के प्रभावी लोगों से मिले और वहाँ भारतीय राजाओं, संन्यासियों एवं धर्माचार्याें द्वारा किये कार्यों को संकलित किया। इस प्रकार ऐसे शिलालेख, भित्तिचित्र और प्रकाशित सामग्री का एक अच्छा संग्रह उनके पास हो गया। एक बार अमरीका में उनका भाषण सुनकर बिड़ला प्रौद्योगिकी संस्थान, राँची के श्री चन्द्रकान्त बिड़ला ने उन्हें अपने संस्थान में काम करने का निमन्त्रण दिया। 1964 में वहाँ दर्शन एवं मानविकी शास्त्र का विभाग खोलकर डा. ओबराय को उसका अध्यक्ष बनाया गया। उनके सुझाव पर सेठ जुगलकिशोर बिड़ला ने छोटा नागपुर में ‘सरस्वती विहार’ की स्थापना कर भारतीय संस्कृति के शोध, अध्ययन एवं प्रचार की व्यवस्था की। सेठ जुगलकिशोर बिड़ला को इस बात का बहुत दुःख था कि वनवासी क्षेत्र में ईसाई मिशनरियाँ सक्रिय हैं तथा वे निर्धन, अशिक्षित लोगों को छल-बल से ईसाई बना रही हैं। यह देखकर डा. ओबराय ने ‘सरस्वती विहार’ की गतिविधियों में ऐसे अनेक आयाम जोड़े, जिससे धर्मान्तरण को रोका जा सके। इसके साथ ही उन्होंने शुद्धीकरण के काम को भी तेज किया। डा. ओबराय हिन्दी, संस्कृत, पंजाबी, उर्दू, अंग्रेजी तथा फ्रेंच के विद्वान थे। सम्पूर्ण भागवत, रामायण, गीता एवं रामचरितमानस उन्हें कण्ठस्थ थे। उनके सैकड़ों शोध प्रबन्ध देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपे। अनेक भारतीय एवं विदेशी छात्रों ने उनके निर्देशन में शोध कर उपाधियाँ प्राप्त कीं। उनकी विद्वत्ता देखकर देश-विदेश के अनेक मठ मन्दिरों से उनके पास गद्दी सँभालने के प्रस्ताव आये; पर उन्होंने विनम्रतापूर्वक सबको मना कर दिया। एक बार वे रेल से इन्दौर जा रहे थे। मार्ग में रायपुर स्टेशन पर उनके एक परिचित मिल गये। उनसे वे बात कर ही रहे थे कि गाड़ी चल दी। डा. ओबराय ने दौड़कर गाड़ी में बैठना चाहा; पर अचानक ठोकर खाकर वे गिर पड़े। उन्हें तत्काल राँची लाया गया; पर चोट इतनी घातक थी कि उन्हें बचाया नहीं जा सका। इस प्रकार सैकड़ों देशों में हिन्दुत्व की विजय पताका फहराने वाला योद्धा 20 सितम्बर, 1983 को चल बसा। ..................................इस प्रकार के भाव पूण्य संदेश के लेखक एवं भेजने वाले महावीर सिघंल मो 9897230196


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