19 अक्टूबर लोक संत पांडुरंग शास्त्री अठावले जन्मदिन पर विशेष महावीर संगल

------------------------------------------------------------------------------------------------ 19 अक्तूबर/जन्म-दिवस लोकसन्त पांडुरंग शास्त्री आठवले हिन्दू समाज की निर्धन और निर्बल जातियों के सामाजिक और आर्थिक उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले दादा के नाम से प्रसिद्ध पांडुरंग शास्त्री आठवले का जन्म 19 अक्तूबर, 1920 को ग्राम रोहा (जिला रायगढ़, महाराष्ट्र) में हुआ था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा तपोवन पद्धति से हुई। इस कारण बचपन से ही उनके मन में निर्बलों के प्रति अतिशय प्रेम था। 22 वर्ष की अवस्था से पांडुरंग दादा ने समाज जागरण का कार्य प्रारम्भ कर दिया। उनके प्रवचन केवल भाषण नहीं, अपितु कार्यकर्ता निर्माण के माध्यम भी थे। कुछ ही समय में स्वाध्याय केन्द्र, युवा केन्द्र, बाल संस्कार केन्द्र, महिला केन्द्र आदि गाँव-गाँव तक फैल गये। 1954 में वे जापान में आयोजित द्वितीय धर्मसभा में गये। वहाँ उनके विचारों से विश्व भर के धर्माचार्य प्रभावित हुए। लौटकर उन्होंने मुम्बई के पास ठाणे में ‘तत्वज्ञान विद्यापीठ’ स्थापित की। इसके बाद उन्होंने निकटवर्ती गाँवों में ‘भक्तिफेरी’ द्वारा लाखों लोगों में प्रेम और संवेदना का सन्देश प्रसारित किया। शिविर और धर्मयात्राओं से उनका स्वाध्याय परिवार बड़ा होने लगा। जो उनके परिवार से जुड़ा, उसके दुर्गुण स्वयमेव ही दूर होने लगते थे। ग्रामीणों के सहयोग से दादा ने हजारों गाँवों में ‘अमृतालयम्’ की स्थापना की। इनमें सभी जाति और वर्ग के लोग आकर पूजा तथा गाँव के विकास के लिए विचार करते हैं। भक्ति की शक्ति द्वारा दादा ने कृषि में क्रान्ति का सूत्रपात किया। गाँव-गाँव में सैकड़ों एकड़ जमीन पर ग्रामीणों ने ‘योगेश्वर कृषि’ शुरू की। इस जमीन पर उस गाँव के सब लोग स्वैच्छिक श्रम करते हैं। इसकी उपज पर किसी का निजी अधिकार नहीं होता। इसे प्रभु की सम्पत्ति मानकर निर्धनों को दे दिया जाता है। 1960 से दादा ने मछुआरों के बीच कार्य प्रारम्भ किया। प्रारम्भ में वहाँ भी कठिनाइयाँ आयीं; पर धीरे-धीरे स्वाध्याय और प्रेम की शक्ति से वातावरण बदल गया। मांसाहार, शराब, जुआ, अपराध आदि रोग छूटने लगे। सागरपुत्रों की बचत से ‘मत्स्यगन्धा’ नामक प्रयोग का जन्म हुआ, जिसके कारण आज ओखा से लेकर गोवा तक कोई भी गाँव भूख से पीड़ित नहीं है। इसी प्रकार की एक योजना ‘वृक्ष मन्दिर’ है। वृक्ष में भी भगवान है, यह समझकर उसे उगाना और फिर उसकी रक्षा भी करना चाहिए। स्वाध्याय परिवार वालों ने शासन से हजारों एकड़ बंजर जमीन लम्बे समय के लिए पट्टे पर लेकर वृक्ष लगाये। निकटवर्ती गाँवों से स्वाध्यायी समय-समय पर वहाँ जाकर उनकी देखभाल करते हैं। अतः सब पेड़ जीवित रहते हैं। इससे पर्यावरण के संरक्षण में भी पर्याप्त सहायता मिली है। चिकित्सकों के लिए ‘पतंजलि चिकित्सालय’ का प्रयोग किया गया। इसमें वे भक्तिभाव से दूर-दराज के गाँवों में जाकर निःशुल्क इलाज करते हैं। इन प्रयोगों से महाराष्ट्र और गुजरात के लगभग एक लाख गाँवों और दो करोड़ लोगों के जीवन में परिवर्तन आया है। इनके लिए दादा ने कभी शासन या धनपतियों से सहायता नहीं ली। भारत सरकार ने दादा को ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया, जबकि रेमन मेग्सेसे तथा टेम्पल्टन अवार्ड जैसे अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार भी उन्हें दिये गये। 26 अक्तूबर, 2003 को पांडुरंग दादा का देहावसान हुआ। उनके द्वारा स्थापित संस्थाएँ आज भी उनके कार्यों को आगे बढ़ा रही हैं। ------------------------------ 19 अक्तूबर/जन्म-दिवस पिंजरे की मैना चन्द्रकिरण सोनरेक्सा हिन्दी की प्रख्यात कहानीकार चंद्रकिरण सौनरेक्सा नये विचारों को सदा सम्मान देने वाली लेखिका थीं। इसीलिए अपने लम्बे और अविराम लेखन से उन्होंने हिन्दी साहित्य की अनेक विधाओं को समृद्ध किया। उनका जन्म 19 अक्तूबर, 1920 को नौशहरा छावनी, पेशावर में हुआ था। परिवार में आर्य समाज का प्रभाव होने के कारण वे कुरीतियों और रूढ़ियों की सदा विरोधी रहीं। यद्यपि उनकी लौकिक शिक्षा बहुत अधिक नहीं हो पायी; पर मुक्त परिवेश मिलने के कारण उन्होंने एक व्यापक अनुभव अवश्य पाया था। उन्होंने घर बैठे ही ‘साहित्य रत्न’ की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा निजी परिश्रम से बंगला, गुजराती, गुरुमुखी, अंग्रेजी, उर्दू आदि भाषाएं सीखीं और इनमें निष्णात हो गयीं। पढ़ने की अनूठी लगन और कुछ करने की चाह उनमें बचपन से ही थी। इसी कारण छोटी अवस्था में ही उन्होंने कथा साहित्य का गहरा अध्ययन किया। बंकिमचंद्र, शरदचंद्र, रवीन्द्रनाथ टैगोर, प्रेमचंद, सुदर्शन कौशिक जैसे तत्कालीन विख्यात कथाकारों की रचनाओं को पढ़ा। इस अध्ययन और मंथन ने उन्हें लेखक बनने के लिए आधार प्रदान किया। चंद्रकिरण जी ने छोटी आयु में साहित्य सृजन प्रारम्भ कर दिया था। 11 वर्ष की अवस्था से ही उनकी कहानियां प्रकाशित होने लगीं थीं। वे ‘छाया’ और ‘ज्योत्सना’ उपनाम से लिखतीं थीं। आगे चलकर तो धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, चांद, माया आदि में भी उनकी अनेक रचनाएं प्रकाशित हुईं। उनकी कहानियों में सामाजिक विसंगति, विकृति, विद्रूप, भयावहता, घुटन, संत्रास आदि का सजीव चित्रण हुआ है। निर्धन और मध्यवर्गीय नारी को कैसे तनाव, घुटन और पारिवारिक दबाव झेलने पड़ते हैं, इसका जीवंत और मर्मस्पर्शी वर्णन उन्होंने किया है। उनका मानना था कि लेखक जो देखता और भोगता है, उस पर लिखना उसका लेखकीय दायित्व है। चंद्रकिरण जी ने 1956 से 1979 तक वरिष्ठ लेखक के रूप में आकाशवाणी, लखनऊ में काम किया। इस दौरान उन्होंने आकाशवाणी की विविध विधाओं नाटक, वार्ता, फीचर, नाटक, कविता, कहानी, परिचर्चा, नाट्य रूपांतरण आदि पर आधिकारिक रूप से अपनी लेखनी चलाई। बाल साहित्य भी उन्होंने प्रचुर मात्रा में लिखा। उनकी कृति ‘दिया जलता रहा’ का धारावाहिक प्रसारण बहुत लोकप्रिय हुआ। उनकी कहानियों का भारतीय भाषाओं के साथ ही चेक, रूसी, अंग्रेजी तथा हंगेरियन भाषाओं में भी अनुवाद हुए। अपनी रचनाओं के लिए उन्हें अनेक सम्मान मिले। इनमें सेक्सरिया पुरस्कार, सारस्वत सम्मान, सुभद्राकुमारी चौहान स्वर्ण पदक तथा हिन्दी अकादमी की ओर से सर्वश्रेष्ठ हिन्दी लेखिका सम्मान प्रमुख हैं। चंद्रकिरण जी का वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रहा। इसका प्रभाव भी उनके लेखन पर दिखाई देता है। 2008 में उनकी आत्मकथा ‘पिंजरे की मैना’ प्रकाशित हुई, जिसका साहित्य जगत में व्यापक स्वागत हुआ। उसका हर पृष्ठ तथा प्रत्येक घटना मन को छू जाती है। उससे पता लगा कि विपरीत पारिवारिक परिस्थितियों के बाद भी उन्होंने अपने भीतर के चिंतन, लेखन व सृजन को मरने नहीं दिया। इस प्रकार उन्होंने न केवल बाह्य अपितु आंतरिक रूप से भी भरपूर संघर्ष किया। 17 मई, 2009 को 89 वर्ष की आयु में लखनऊ में उनका देहांत हुआ। इस प्रकार उन्मुक्त गगनाकाश में विचरने के लिए वह पिंजरे की मैना अपने तन और मन रूपी सभी बंधनों से मुक्त हुई। (संदर्भ : हिन्दुस्तान, 31.5.09) इस प्रकार के भाव पूण्य संदेश के लेखक एवं भेजने वाले महावीर सिघंल मो 9897230196


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