7 नवंबर संघ संम्परित माधवराव मूले जन्मदिन पर विशेष महावीर संगल जी

7 नवम्बर/जन्म-दिवस संघ समर्पित माधवराव मुले 7 नवम्बर, 1912 (कार्तिक कृष्ण 13, धनतेरस) को ग्राम ओझरखोल (जिला रत्नागिरी, महाराष्ट्र) में जन्मे माधवराव कोण्डोपन्त मुले प्राथमिक शिक्षा पूरी कर आगे पढ़ने के लिए 1923 में बड़ी बहन के पास नागपुर आ गये थे। यहाँं उनका सम्पर्क संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार से हुआ। मैट्रिक के बाद इन्होंने डिग्री कालिज में प्रवेश लिया; पर क्रान्तिकारियों से प्रभावित होकर पढ़ाई छोड़ दी। इसी बीच पिताजी का देहान्त होने से घर चलाने की पूरी जिम्मेदारी इन पर आ गयी। अतः इन्होंने टायर ट्यूब मरम्मत का काम सीखकर चिपलूण में यह कार्य किया; पर घाटा होने से उसे बन्द करना पड़ा। इस बीच डा. हेडगेवार से परामर्श करने ये नागपुर आये। डा. जी इन्हें अपने साथ प्रवास पर ले गये। इस प्रवास के दौरान डा. जी के विचारों ने माधवराव के जीवन की दिशा बदल दी। चिपलूण आकर माधवराव ने दुकान किराये पर उठा दी और स्वयं पूरा समय संघ कार्य में लगाने लगे। 1937 में निजाम हैदराबाद के विरुद्ध हुए सत्याग्रह तथा 1938 में पुणे में सोना मारुति सत्याग्रह के दौरान वे जेल भी गये। 1939 में माधवराव प्रचारक बने। 1940 में उन्हें पंजाब भेजा गया। विभाजन की चर्चाओं के कारण वहाँ का वातावरण उन दिनों बहुत गरम था। ऐसे में हिन्दुओं में हिम्मत बनाये रखने तथा हर स्थिति की तैयारी रखने का कार्य उन्होंने किया। गाँव और नगरों में शाखाओं का जाल बिछ गया। माधवराव ने सरसंघचालक श्री गुरुजी का प्रवास सुदूर क्षेत्रों में कराया। इससे हिन्दुओं का मनोबल बढ़ा और वे हर स्थिति से निबटने की तैयारी करने लगे। मुस्लिम षड्यन्त्रों की जानकारी लेने के लिए अनेक स्वयंसेवक मुस्लिम वेष में मस्जिदों और मुस्लिम लीग की बैठकों में जाने लगे। शस्त्र संग्रह एवं प्रशिक्षण का कार्य भी बहुत प्रभावी ढंग से हुआ। इससे विभाजन के बाद बड़ी संख्या में हिन्दू अपने प्राण बचाकर आ सके। आगे चलकर भारत में इनके पुनर्वास में भी माधवराव की भूमिका अति महत्त्वपूर्ण रही। देश के स्वतन्त्र होते ही धूर्त पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया। माधवराव के निर्देश पर स्वयंसेवकों ने भारतीय सैनिकों के कन्धे से कन्धा मिलाकर कार्य किया। श्रीनगर हवाई अड्डे को स्वयंसेवकों ने ही दिन रात एक कर ठीक किया। इसी से वहाँ बड़े वायुयानों द्वारा सेना उतर सकी। अन्यथा आज पूरा कश्मीर पाकिस्तान के कब्जे में होता। 1959 में उन्हें क्षेत्र प्रचारक, 1970 में सहसरकार्यवाह तथा 1973 में सरकार्यवाह बनाया गया। 1975 में इन्दिरा गान्धी ने देश में आपातकाल थोपकर संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया। सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस जेल चले गये। ऐसे में लोकतन्त्र की रक्षार्थ हुए सत्याग्रह का स॰चालन माधवराव ने ही किया। एक लाख स्वयंसेवक जेल गये। इनके परिवारों को कोई कष्ट न हो, इस बात पर माधवराव का जोर बहुत रहता था। 1977 के लोकसभा चुनाव में इन्दिरा गान्धी पराजित हुई। संघ से भी प्रतिबन्ध हट गया। यद्यपि माधवराव कभी विदेश नहीं गये; पर उन्होंने विदेशस्थ स्वयंसेवकों से सम्पर्क का तन्त्र विकसित किया। आज विश्व के 200 से भी अधिक देशों में संघ कार्य चल रहा है। इस भागदौड़ से उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया। 1978 में अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने रज्जू भैया को सरकार्यवाह चुना। मुम्बई में माधवराव की चिकित्सा प्रारम्भ हुई; पर हालत में सुधार नहीं हुआ। 30 सितम्बर 1978 को अस्पताल में ही उनका देहान्त हो गया। ......................................... 7 नवम्बर/जन्म-दिवस नोबेल पुरस्कार विजेता डा. रामन बात 1903 की है। मद्रास के प्रेसिडेन्सी कालेज में बी.ए. में पढ़ाते समय प्रोफेसर इलियट ने एक छोटे छात्र को देखा। उन्हें लगा कि यह शायद भूल से यहाँ आ गया है। उन्होंने पूछा, तो उस 14 वर्षीय छात्र चन्द्रशेखर वेंकटरामन ने सगर्व बताया कि वह इसी कक्षा का छात्र है। इतना ही नहीं, तो आगे चलकर उसने यह परीक्षा भौतिकी में स्वर्ण पदक लेकर उत्तीर्ण की। वेंकटरामन का जन्म तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में 7 नवम्बर, 1888 को हुआ था। उसके पिता श्री चन्द्रशेखर अय्यर भौतिक शास्त्र के अध्यापक तथा प्रख्यात ज्योतिषी थे। माता पार्वती अम्मल भी एक धर्मपरायण तथा संगीतप्रेमी महिला थीं। इस प्रकार उनके घर में विज्ञान, संस्कृत और संगीत का मिलाजुला वातावरण था। उनकी बुद्धि की तीव्रता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जिस समय अन्य छात्र खेलकूद में ही व्यस्त होते हैं, उस समय वेंकटरामन का एक शोधपत्र प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका ‘नेचर’ में प्रकाशित हो चुका था। शिक्षा पूर्ण कर वेंकटरामन ने कोलकाता में लेखाकार की नौकरी कर ली। यह बड़े आराम की नौकरी थी; पर उनका मन तो भौतिक शास्त्र के अध्ययन और शोध में ही लगता था। अतः इस नौकरी को छोड़कर वे कोलकाता विश्वविद्यालय के साइंस कालेज में प्राध्यापक बन गये। इस दौरान उन्हें शोध का पर्याप्त समय मिला और उनके अनेक शोधपत्र विदेशी विज्ञान पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। वे काम के प्रति इतने समर्पित रहते थे कि पढ़ाने के बाद वे प्रयोगशाला में आ जाते थे और कई बार तो वहीं सो भी जाते थे। किसी भी पुस्तक को पढ़ते समय जो बात समझ में नहीं आती थी, उसे चिन्हित कर वे हाशिये पर क्यों या कैसे लिख देते थे। इसके बाद वे उसकी खोज में जुट जाते थे। इसी जिज्ञासा ने उन्हें महान वैज्ञानिक बना दिया। एक बार इंग्लैण्ड से लौटते समय पानी के जहाज की डेक पर बैठे हुए उन्होंने सोचा कि समुद्र का जल नीला क्यों है ? उस समय यह धारणा थी कि नीले आकाश के प्रतिबिम्ब के कारण ऐसा है; पर उन्हें इससे सन्तुष्टि नहीं हुई। अपने स्वभाव के अनुसार वे इस सम्बन्ध में गहन शोध में लग गये। सात वर्ष के लगातार शोध के बाद उन्होंने जो निष्कर्ष निकाले उसेे आगे चलकर प्रकाश और उसके रंगों पर ‘रमन प्रभाव’ कहा गया। 28 फरवरी, 1928 को उन्होंने अपनी इस खोज की घोषणा की। इससे विश्व भर के वैज्ञानिकों में तहलका मच गया। इससे ऊर्जा के भीतर परमाणुओं की स्थिति को समझने में बहुत सहायता मिली। इसके लिए 1930 में उन्हें भौतिकी का विश्व प्रसिद्ध नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। 1954 में भारत सरकार ने देश के प्रति उनकी सेवाओं को देखकर उन्हें ‘भारत रत्न’ प्रदान किया। यह कैसा आश्चर्य है कि जिस उपकरण की सहायता से उन्होंने यह खोज की, उसे बनाने में केवल 300 रु. खर्च हुए थे। नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद भी डा. रामन ने विदेशों की सेवा के बदले बंगलौर स्थित ‘इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ़ साइंस’ में निदेशक के पद पर काम करना पसंद किया। इसके बाद वे ‘रमन रिसर्च इन्स्टीट्यूट’ के निदेशक बने। जीवन भर विज्ञान की सेवा करने वाले डा. चन्द्रशेखर वेंकटरामन ने 21 नवम्बर, 1970 को जीवन से ही पूर्णावकाश ले लिया। भारत सरकार ने उनकी स्मृति में 28 फरवरी को ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ घोषित किया है। ........................................... 7 नवम्बर/इतिहास-स्मृति गोवंश रक्षा हेतु महान आन्दोलन स्वतन्त्र भारत के इतिहास में 7 नवम्बर, 1966 का दिन बड़ा महत्वपूर्ण है। इस दिन राजधानी दिल्ली में संसद भवन के सामने गोवंश की रक्षा की माँग करते हुए 10 लाख से अधिक गोभक्त एकत्र हुए थे। इतना बड़ा प्रदर्शन भारत तो क्या, शायद विश्व के इतिहास में कभी नहीं हुआ था; पर इन गोभक्तों को यह देखकर बड़ी निराशा हुई कि जिस प्रकार कसाई गोमाता पर अत्याचार करता है, उसी प्रकार कांग्रेस सरकार ने इन गोभक्तों पर अत्याचार किये। जिन दिनों स्वतन्त्रता प्राप्ति का आन्दोलन चल रहा था, तब गान्धी जी प्रायः कहते थे कि मेरे लिए गोरक्षा का महत्व स्वतन्त्रता से भी अधिक है। देश के स्वतन्त्र होते ही पहला आदेश सम्पूर्ण गोवंश की रक्षा का होगा; पर यह सब कागजी बातें सिद्ध हुईं। गोहत्या रोकना तो दूर, शासन ने मशीनी कत्लखाने खुलवाने पर कमर कस ली। इन सबके मूल में थे प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू, जो स्वयं को जन्म से दुर्घटनावश हिन्दू, संस्कारों से मुसलमान और विचारों से ईसाई मानते थे। कोढ़ में खाज की तरह वे रूस की कम्युनिस्ट पार्टी और व्यवस्था से भी अत्यधिक प्रभावित थे। गोवंश की रक्षा के लिए मुगल शासन से लेकर अंग्रेज शासन तक हिन्दू वीरों ने बहुत बलिदान दिये। पंजाब में नामधारी सिखों का तो मुस्लिमों से झगड़ा ही इसी बात को लेकर होता था। वे बूचड़खाने पर हमला बोल कर उसे नष्ट कर देते थे या वहाँ जा रही गायों को कसाइयों से छीन लेते थे; पर जब स्वतन्त्रता मिलने और संविधान में प्रावधान होने के बाद भी गोहत्या पर प्रतिबन्ध नहीं लगा, तो हिन्दुओं को मजबूर होकर आन्दोलन का मार्ग अपनाना पड़ा। इसके अन्तर्गत ‘सर्वदलीय गोरक्षा महाभियान समिति’ का गठन किया गया। इसमें देश भर के सभी पन्थों, सम्प्रदायों के साधु, सन्त और धार्मिक, सामाजिक नेता एक म॰च पर एकत्र हुए। 7 नवम्बर, 1966 को गोमाता की जय, भारत माता की जय, गोहत्या बन्द हो के नारे लगाते हुए दिल्ली की सड़कों पर जनसमुद्र उमड़ पड़ा। इससे इन्दिरा गान्धी के कांग्रेस शासन की नींव हिलने लगी। गृहमन्त्री गुलजारीलाल नन्दा की सहानुभूति आन्दोलनकारियों के साथ थी; पर कुछ कांग्रेसी उनका महत्व कम करना चाहते थे। ऐसे लोगों ने षड्यन्त्रपूर्वक इस आन्दोलन को बदनाम करने के लिए कुछ गुण्डों को भीड़ में घुसा दिया। इनमें निर्धारित वेष पहने बिना कुछ पुलिसकर्मी भी थे। इन्दिरा गान्धी और उनके प्रिय कांग्रेसी इस आन्दोलन के नेतृत्व करने वाले भारतीय जनसंघ, विश्व हिन्दू परिषद्, रामराज्य परिषद्, हिन्दू महासभा, आर्य समाज आदि संगठनों को बदनाम करना चाहते थे। यहाँ तक कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक और इस आन्दोलन के प्राण श्री गुरुजी की हत्या करना चाहते थे। इन लोगों ने आन्दोलनकारियों पर पथराव कर दिया। इससे प्रदर्शन में शामिल युवक भी भड़क गये। इसका लाभ उठाकर पुलिस ने लाठी और फिर गोली चला दी। सड़क पर गिरे साधुओं को उठाकर गोली मारी गयी। फलतः हजारों लोग घायल हुए और सैकड़ों मारे गये। पुलिस ने उन्हें ट्रकों में लादकर विद्युत शवदाह गृहों में फूँक दिया। उस दिन जैसा भीषण अत्याचार गोभक्तों पर हुआ, उसने चंगेज खाँ, हलाकू, अहमदशाह अब्दाली, नादिरशाह और जलियाँवाला बाग के अत्याचारों को भी पीछे छोड़ दिया। इसमें सबसे कष्ट की बात यह थी कि यह सब अपने देश के शासन ने ही किया था। इस प्रकार के भाव पूण्य संदेश के लेखक एवं भेजने वाले महावीर सिघंल मो 9897230196


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