9 नवंबर महान राजनीतिज्ञ जगदीश प्रसाद माथुर के जन्मदिन पर विशेष महावीर संगल

9 नवम्बर/जन्म-दिवस राजनीतिक कीचड़ में कमल जगदीश प्रसाद माथुर राजनीति एक ऐसा दलदली क्षेत्र है, जहाँ जाकर आदर्षवादी कार्यकर्ताओं के भी डिग जाने का खतरा रहता है; पर श्री जगदीश प्रसाद माथुर ऐसे आदर्ष कार्यकर्ता थे, जिन्होंने उस कीचड़ में भी कमलवत जीवन बिता कर दिखाया। जगदीश प्रसाद जी का जन्म शेरकोट (जिला बिजनौर, उ.प्र.) में नौ नवम्बर, 1921 को हुआ था। छात्र जीवन में जगदीश जी ने मुस्लिम नेताओं की देष विरोधी और विभाजन समर्थक गतिविधियों को निकट से देखा। उनका संवेदनषील मन इससे बहुत दुखी होता था। 1942 में उन्होंने भारत छोड़ो आन्दोलन में भी भाग लिया; पर कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के विचार और व्यवहार का अन्तर देखकर उनका कांग्रेस से मोहभंग हो गया। ऐसे में ही उनका सम्पर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ, जो हिन्दू युवकों को संगठित कर रहा था। एक बार का सम्पर्क जीवन भर का सम्बल बन गया और फिर तो जगदीश प्रसाद जी संघ के ही होकर रह गये। अपनी षिक्षा पूर्ण कर 1945 में जगदीष जी ने अपना जीवन संघ कार्य के लिए समर्पित कर दिया। प्रारम्भ में उन्हें मुरादाबाद जिले में भेजा गया। फिर वे बदायूँ के जिला प्रचारक रहे। 1952 में जब जनसंघ की स्थापना हुई, तो उनकी संगठन एवं व्यवस्था कुषलता देखकर उन्हें दीनदयाल जी के साथ वहाँ भेज दिया गया। इसके बाद जब तक दीनदयाल जी जीवित रहे, उनकी सारी व्यवस्था जगदीष जी ही सँभालते रहे। जगदीश जी बहुत अध्ययनषील और तार्किक स्वभाव के व्यक्ति थे। उनकी प्रत्येक बात तथ्यात्मक होती थी। उनके परिवार में उर्दू के अध्ययन का माहौल था, अतः वे उर्दू के अच्छे जानकार थे। जनसंघ में आने के बाद उन्होंने अपनी अंग्रेजी को भी परिमार्जित किया; क्योंकि उन्हें देष विदेष के अनेक विषयों का अध्ययन करना पड़ता था। डा. मुखर्जी ने जब कष्मीर आन्दोलन छेड़ा, तो जुझारू स्वभाव के जगदीश जी उनके साथ रहे। समय-समय पर जगदीश प्रसाद जी पर अनेक राजनीतिक दायित्व रहे। वे जनसंघ के राष्ट्रीय सचिव भी रहे। 1977 में जब जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हुआ, तब जगदीश जी को उसकी राष्ट्रीय परिषद् का स्थायी आमन्त्रित सदस्य बनाया गया; पर जनता पार्टी का बेमेल खोमचा जल्दी ही बिखर गया। 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना के बाद वे उसके प्रवक्ता, राष्ट्रीय सचिव और उपाध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पदों पर रहे। जगदीश जी की कोई निजी महत्वाकांक्षा नहीं थी। फिर भी उनकी प्रभावी वक्तष्त्व शैली एवं विषयों के तार्किक विष्लेषण की क्षमता को देखते हुए उन्हें दो बार राज्यसभा में भेजा गया। इस दौरान दल के मुख्य सचेतक और सदन में दल के उपनेता के रूप में उनका कार्य अविस्मरणीय है। जब उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा, तो उन्होंने संगठन के महत्त्वपूर्ण कामों से मुक्ति ले ली। इसके बाद भी वे दिल्ली भाजपा कार्यालय पर रहते हुए अपने अनुभवसिद्ध परामर्ष के लिए सदा उपलब्ध रहते थे। ध्येयनिष्ठ व मधुर मुस्कान के धनी जगदीश प्रसाद माथुर का 86 वर्ष की सुदीर्घ आयु में 20 अक्तूबर, 2007 को दिल्ली में ही देहान्त हुआ। जनसंघ और भाजपा के सन्देष को जन-जन तक पहुँचाने के लिए जिन लोगों ने अपना जीवन होम किया, उनमें जगदीष जी का नाम सदा याद किया जाता रहेगा। ....................................... 9 नवम्बर/जन्म-दिवस भारतीयता के मनीषी राजदूत डा. लक्ष्मीमल सिंघवी ईश्वर सबको कुछ न कुछ प्रतिभा देकर भेजता है; पर कुछ लोग उसे अपने परिश्रम से और अधिक तराश लेते हैं। डा. लक्ष्मीमल सिंघवी ऐसे ही प्रतिभावान पुरुष थे, जिन्होंने लेखन, सम्पादन, राजनेता, सांसद, अधिवक्ता से लेकर समाजसेवा आदि सभी क्षेत्रों में अपनी योग्यता का लोहा मनवाया। डा. सिंघवी का जन्म 9 नवम्बर, 1931 (दीपावली) को हुआ था। उन्होंने भारत में राजस्थान, प्रयाग, कोलकाता, दिल्ली, उस्मानिया, आन्ध्र, तमिलनाडु और जबलपुर विश्वविद्यालय सहित अमरीका के हावर्ड, कारनेल, ब्रेकले तथा इंग्लैण्ड के कैम्ब्रिज, आक्सफोर्ड, एडिनबर्ग, वेस्ट मिन्स्टर आदि विश्वविद्यालयों में शिक्षा पायी। व्यवसाय के रूप में वकालत को अपनाने के बाद वे भारत के सर्वोच्च न्यायालय की अधिवक्ता परिषद के कई बार अध्यक्ष रहे। डा. सिंघवी ने सर्वोच्च न्यायालय बार एसोसिएशन न्यास की स्थापना भी की। वे भारत ही नहीं तो वैश्विक स्तर पर विधि एवं मानवाधिकार से जुड़े अनेक अध्ययन एवं शोध संस्थानों के संस्थापक रहे। विधि क्षेत्र के अनेक अध्ययन दलों का उन्होंने नेतृत्व किया। उनके सुझाए गये अनेक उपाय अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार किये गये। भारत में लोकपाल एवं लोकायुक्त शब्दों का प्रचलन डा0 सिंघवी ने ही प्रारम्भ और स्वीकृत कराया। भारत विकास परिषद, रोटरी क्लब आदि सैकड़ों समाजसेवी संस्थाओं से सम्बद्ध डा. सिंघवी राजनीति में भी सक्रिय थे। उन्होंने 1962 से 1967 तक लोकसभा में निर्दलीय सांसद के रूप में जोधपुर का प्रतिनिधित्व किया। इसके बाद वे 1998 से 2004 तक राज्यसभा के सदस्य रहे। इण्डिया इण्टरनेशनल सेण्टर के आजीवन न्यासी एवं संस्थापक अध्यक्ष डा. सिंघवी 2003 तथा 2004 में आयोजित प्रथम एवं द्वितीय ‘भारतीय प्रवासी दिवस’ आयोजनों के भी अध्यक्ष रहे। 9 जनवरी को प्रतिवर्ष मनाये जाने वाले इस दिवस को वे भारत और विदेशों में रह रहे भारतीयों के बीच सेतु मानते थे। ब्रिटेन में उच्चायुक्त के नाते उनका सात वर्ष का कार्यकाल सदा याद किया जाएगा। उनके प्रयास से अनेक भारतीय धरोहरें वापस भारत लायी जा सकीं। वे प्रिन्स चार्ल्स को पूजा के लिए हिन्दू मन्दिर भी ले गये। उन्हें ब्रिटिश संसद भवन वेस्टमिन्स्टर में एक दिन के लिए ब्रिटेन के झण्डे के साथ भारत के तिरंगे झण्डे को फहराने में सफलता मिली। उन्होंने वहाँ श्री अटल बिहारी वाजपेयी का एकल कविता पाठ भी धूमधाम से कराया। ब्रिटिश शासन ने उन्हें अपने देश में विधि एवं न्याय का प्रतिष्ठित सम्मान ‘ऑनरेरी बेंचर एण्ड मास्टर ऑफ दि मिडिल टेंपल’ प्रदान किया। गोहत्या रुकवाने के लिए उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में बहस की। इससे गोवंश में गाय के साथ ही बछड़े, बछड़ी, बैल आदि को भी शामिल किया गया। साहित्य के क्षेत्र में भी उनका योगदान अप्रतिम था। देश-विदेश के सैकड़ों साहित्यिक आयोजनों एवं न्यासों से वे जुड़े थे। इनके द्वारा उन्होंने जहाँ एक ओर कालजयी लेखक व कवियों का साहित्य प्रकाशित कराया, वहीं नये रचनाकारों की कृतियों को भी प्रकाश में लाये। अन्तिम दिनों में वे ‘साहित्य अमृत’ मासिक पत्रिका के सम्पादक थे। 2007 में न्यूयार्क में हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन की आयोजन समिति में भी वे थे; पर स्वास्थ्य खराबी के कारण वहाँ जा नहीं सके। इस पर उन्होंने अपना हस्तलिखित वक्तव्य वहाँ भेजा। भारत और भारतीयता के इस मनीषी राजदूत का देहान्त छह अक्तूबर, 2007 को हुआ। ................................. 9 नवम्बर/जन्म-दिवस हिन्द केसरी मास्टर चंदगीराम भारतीय कुश्ती को विश्व भर में सम्मान दिलाने वाले मास्टर चंदगीराम का जन्म 9 नवम्बर, 1937 को ग्राम सिसई, जिला हिसार, हरियाणा में हुआ था। मैट्रिक और फिर उसके बाद कला एवं शिल्प में डिप्लोमा लेने के बाद वे भारतीय थलसेना की जाट रेजिमेण्ट में एक सिपाही के रूप में भर्ती हो गये। कुछ समय वहां काम करने के बाद वे एक विद्यालय में कला के अध्यापक बन गये। तब से ही उनके नाम के साथ मास्टर लिखा जाने लगा। कुश्ती के प्रति चंदगीराम की रुचि बचपन से ही थी। हरियाणा के गांवो में सुबह और शाम को अखाड़ों में जाकर व्यायाम करने और कुश्ती लड़ने की परम्परा रही है। चंदगीराम को प्रसिद्धि तब मिली, जब 1961 में अजमेर और 1962 में जालंधर की कुश्ती प्रतियोगिता में वे राष्ट्रीय चैम्पियन बने। इसके बाद तो वे हर प्रतियोगिता को जीत कर ही वापस आये। कलाई पकड़ उनका प्रिय दांव था। इसमें प्रतिद्वन्द्वी की कलाई पकड़कर उसे चित किया जाता है। चंदगीराम ने हिन्द केसरी, भारत केसरी, भारत भीम, महाभारत केसरी, रुस्तम ए हिन्द जैसे कुश्ती के सभी पुरस्कार अपनी झोली में डाले। 1970 में उनका नाम अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुआ, जब वे बैंकाक एशियाई खेल में भाग लेने गये। वहां 100 किलो वर्ग में उनका सामना तत्कालीन विश्व चैम्पियन ईरान के अमवानी अबुइफाजी से हुआ। अमवानी डीलडौल में चंदगीराम से सवाया था; पर चंदगीराम ने अपने प्रिय दांव का प्रयोग कर उसकी कलाई पकड़ ली। अमवानी ने बहुत प्रयास किया, पर चंदगीराम ने कलाई नहीं छोड़ी। इससे वह हतोत्साहित हो गया और चंदगीराम ने मौका पाकर उसे धरती सुंघा दी। इस प्रकार उन्होंने स्वर्ण पदक जीत कर भारत का मस्तक ऊंचा किया। इसे बाद चंदगीराम 1972 के म्यूनिख ओलम्पिक में भी गये; पर वहां उन्हें ऐसी सफलता नहीं मिली। भारत सरकार ने 1969 में उन्हें ‘अर्जुन पुरस्कार’ और 1971 में ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया। इसके बाद चंदगीराम ने कुश्ती लड़ना तो छोड़ दिया; पर दिल्ली में यमुना तट पर अखाड़ा स्थापित कर वे नयी पीढ़ी को को कुश्ती के लिए तैयार करने लगे। कुछ ही समय में यह अखाड़ा प्रसिद्ध हो गया। उनके अनेक शिष्यों ने राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में पदक जीतकर अपने गुरू के सम्मान में वृद्धि की। अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में लड़कियों की कुश्ती प्रतियोगिता भी होती थी; पर भारत का प्रतिनिधित्व वहां नहीं होता था। चंदगीराम ने इस दिशा में भी कुछ करने की ठानी; पर उनके इस विचार को अधिक समर्थन नहीं मिला। इस पर उन्होंने अपनी पुत्री सोनिका कालीरमन को ही कुश्ती सिखाकर एक श्रेष्ठ पहलवान बना दिया। उसने भी दोहा के एशियाई खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व किया। धीरे-धीरे अन्य लड़कियां भी कुश्ती में आगे आने लगीं। उन्होंने अपने पुत्र जगदीश कालीरमन को भी कुश्ती का अच्छा खिलाड़ी बनाया। हरियाणा शासन ने कुश्ती एवं अन्य भारतीय खेलों को प्रोत्साहन देने के लिए चंदगीराम को खेल विभाग का सहसचिव नियुक्त किया। आगे चलकर उन्होंने ‘वीर घटोत्कच’ और ‘टार्जन’ नामक फिल्मों में भी काम किया। उन्होंने ‘भारतीय कुश्ती के दांवपेंच’ नामक एक पुस्तक भी लिखी। सिर पर सदा हरियाणवी पगड़ी पहनने वाले चंदगीराम जीवन भर कुश्ती को समर्पित रहे। 1970 से पूर्व तक भारतीय कुश्ती की विश्व में कोई पहचान नहीं थी; पर चंदगीराम ने इस कमी को पूरा किया। 29 जून, 2010 को अपने अखाड़े में ही हृदयगति रुकने से इस महान खिलाड़ी का देहांत हुआ। .................................इस प्रकार के भाव पूण्य संदेश के लेखक एवं भेजने वाले महावीर सिघंल मो 9897230196


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