जीवन चेतना को जानना एक आध्यात्मिक विज्ञान है और यह विज्ञान नश्वर को जानकर ईश्वर में प्रवेश कर जाता है डॉक्टर अमन शामली

जीवन जीने की कला और विज्ञान का सबसे छिपा रहस्य और सत्य क्या है ? चेतना से जीना, चैतन्य से मरना? मन के चेतन अवधान की स्थिति. केंद्रित चैतन्य ध्यान से गुजरना, शरीर को जीना और उसे त्यागना, एक खोई हुई कला है, कम से कम आज के संसार में। प्राचीन काल में भारत में विस्तृत अनुष्ठान होते थे आध्यात्मिक रूप से जागरूक लोगों द्वारा गंभीरता से अभ्यास किए जाते थे, जिसमे पूर्ण चैतन्यता से शरीर लोक से निकला जाता था पूर्णतः इच्छाशक्ति के साथ. आज अधिकांश पीड़ा में और इच्छाओं के बोझ तले दबे ही मर जाते हैं क्योंकि वे कुछ भी नहीं समझ पाए हैं और न ही सत्य धर्म की गहराई में गए हैं जो उन्हें आत्मा की निरंतरता के बारे में जागरूक करते हैं और इस जीवन पर विचार कर उसे जान पाते हैं । शरीर एक अस्थायी, अनस्थिर आवरण के रूप में पिछले जन्मों और कर्मों के अनुसार; मानव स्वरूप में जन्म लेता है। यह जीवन कुछ कमी को सीखने को पूरा करने के लिए है और फिर सभी सामान, संपत्ति और अन्य चीजों को छोड़ देना है? सीख और पाठ क्या है ? हम केवल अपने अनुभूत ज्ञान और अपनी सीख, अनुभव अपने साथ ले जा सकते हैं। यह हमारे पूर्व के विद्यमान संस्कारों को जोड़ता है [संस्कार आत्मा पर पूर्व जीवन काल के प्रभावों व अंकित चित्रों को कहते हैं] जिसे हमने हजारों जीवन और मृत्यु में संचित और एकत्र किया है। हम यहां केवल क्षण भर के लिए हैं और हमारे साथ कुछ भी नहीं जाने वाला। अपने ज्ञान को पुनश्चर्या [तरोताजा] करने के लिए केवल ज्ञान संचित करना और अतीत से सीखना है । ज्ञान वह नहीं है जो हम विद्यालयों में सीखते हैं अपितु इस जीवन के व्यावहारिक स्कूल में। इससे भी परे हमारे प्रत्यक्ष अनुभवों द्वारा प्राप्त आत्मा की सीख है, हमारे पास विद्यमान भावनाएं और जीवन जिसमें हमने अपने शुभ कर्मों द्वारा एक गहन अंतर उत्पन्न किया है, और हमारी मूर्खता, बुद्धिमत्ता और निष्क्रियता के कई और कृत्यों को जब हमें कार्यशील होकर कर्म करना चाहिए था। हम वह शरीर नहीं हैं जो हमें लगता है कि हमारे पास है। हम एक देंदीप्यमान स्वर्ण की लौ में जगमगाते एक देव शरीर है जो केवल इस भंगुर, क्षीण होने वाले, नाजुक शरीर में संलग्न, लिप्त एक शरीर रूपी वस्त्र में है। शरीर को क्रियात्मक रूप में रखने के लिए केवल हमारे नियत समय को बढ़ाने के लिए एक आवश्यकता है। ज्यादातर लोग सड़ते हुए शरीर में धीरे-धीरे मरते हैं। हम अपने जीवन जीने की प्रक्रिया को अंश अंश द्वारा जानबूझ कर क्षय होकर मरने की अपेक्षा उसे उलट कर अंश अंश हो कर एक पूर्ण सजग और चेतन जीवन जी सकते हैं। इस सहज जीवन जीने की कला केवल तभी आएगी जब सब सांसारिक सम्मोहन त्याग कर, चिंतित हुए बिना, मंदहास करते हुए इस संसार के नाटक को एक दूर से देखने वाले प्रेक्षक और समीक्षक की भाँती हम इस बात को जानते हुए जियेंगे की यह शरीर तो निश्चित ही क्षय होगा पर मै अर्थात आत्मा का प्रकाश शरीर कभी नष्ट न होगा। जब तक इस तथ्य को हम पूर्ण रूप से मान नहीं लेंगे हम कभी भी पूर्ण जीवन में नहीं आ पाएंगे. अब ये जानकार अपने अधूरे जीवन, अधूरी अपूर्ण कथा को त्याग दें और एक नए सिरे, एक नए प्रारम्भ के साथ एक नए जीवन को आरम्भ करें जो इस बात से पूर्णतः सजग और चैतन्य हो की हम शरीर नहीं है केवल इस शरीर रुपी चलती फिरती सत्ता में छिपे एक ज्योत हैं जो सीधा प्रत्यक्ष उस परम देव शरीर की है जो स्थायी है नित्य है पूर्णतय आनंदित और जिसकी सुखिनं उपस्थिति सदा ही अति प्रत्यक्ष और समीप है केवल हम अपनी अज्ञानता रुपी अभिशाप के कारण केवल इन आँखों से देखे को ही सत्य मान बैठे है, अरे ये जो दृष्टि में है ये सब एक मात्र छोटा सा परिहास पूर्ण नाटक है जो अस्थायी और अनिश्चित है क्यों इस क्षण भंगुर दृश्य को सत्य मान बैठे हो. इस मूढ़ विचार से निकल जाएँ और मेरी बात मानकर सर्व जीवन दोबारा से आरम्भ करें। कुछ दिनों में जब यह काया कल्प होगा मुझे ढूंढोगे के मैंने पहले ये सत्य प्रत्यक्ष क्यों नहीं किया. चलो अब तो जान लिया। वह देव शरीर ईश्वर वहीँ तुम्हारे समीप है अपनी अंतर् की आंखे खोलकर ध्यान लगाओ और वह दूर नहीं हैं. हम ही अपने को संसार का मानकर दूर हो जाते हैं. वह सदा ही हमारे पास है। वही सबसे प्रिय है वही हमारा वास्तविक मात पिता और भ्राता है वही हमारा काल, दिव्य ज्ञान और सत्यता है उसी से निकले और उसी में समाना है. ये सभी धर्म, सामाजिक व्यवस्था और भौतिक लोग और दृष्टिगोचर संसार हमें कभी नहीं सिखाएंगे। हमें अपना पर्यवेक्षक [आब्जर्वर] बनना है। हमारे अपने कार्यों कृत्यों और विचारों के प्रति सजग प्रेक्षक जो दूर से देखकर हमें सावधान करे और इस संसार में रहने पर भी यह स्मरण कराता रहे की ये सब अस्थ्याई है। हम दूसरों के कृत्यों पर निर्भर नहीं हो सकते। हम दूसरों के कृत्यों की चिंता नहीं कर सकते। हम केवल अपने कर्मों की चिंता कर सकते हैं। वे कर्म केवल हमारे अपने गृह कार्य [होम वर्क] हैं। शेष सब केवल एक दिनचर्या है जो समय व्यतीत हो रहा है जैसे कि अपनी उँगलियों के नख बढ़ते देखते हैं। हमारा समय एकमात्र वास्तविक कीमती और मूल्यवान संपत्ति है। हम दूसरों के सपने, दूसरों के जीवन, दूसरों की संपत्ति और अन्य लोगों के विश्वासों का पीछा करते हुए इसे बर्बाद करते हैं और इसे दूर करते हैं। हम क्या कर रहे हैं? हम बस दूसरों और दुनिया के लिए समर्पित एक मूर्खतापूर्ण अर्थहीन जीवन जी रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि हम आते हैं और खाली जाते हैं। यही ९९% जीव जंतु और मनुष्य के साथ होता है. हम उसे परिवर्तित कर सकते हैं। अपना जीवन दूसरों में बर्बाद न करें। इसे अपने आप को समर्पित करें। स्वार्थी बनो और स्वयं को जानो। यही सार्थक होने का एकमात्र तरीका है। यदि आप इस बात को नहीं समझते या प्रयास नहीं करते तो कुछ भी सत्य नहीं हैं. मात्र एक मूल्यवान मीठे पके फल की तरह है जो अपने मातृ वृक्ष से गिरता है और तेज हवा से उड़ जाता है या आंधी में उड़ा लिया जाता है. सोचो क्या करना है? सोच बदलेंगे तो जीव बदलेगा। जीव बदलेगा तो दृष्टि और दृश्य दोनों बदल जायेंगे। फिर जो दृश्य होगा वह सम्पूर्ण होगा। आत्मिक समीक्षा - आध्यात्मिक यात्रा आत्मिक समीक्षा - आध्यात्मिक यात्रा [c[ 2015-2021]


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