स्वामी रामभद्राचार्य साहित्य शिरोमणि विद्यानिवास मिश्र के जन्मदिन पर विशेष महावीर संगल

 14 जनवरी/जन्म-दिवस



साहित्य शिरोमणि विद्यानिवास मिश्र


भारतीय साहित्य और संस्कृति की सुगन्ध भारत ही नहीं, तो विश्व पटल पर फैलाने वाले डा. विद्यानिवास मिश्र का जन्म 14 जनवरी, 1926 को गोरखपुर (उ.प्र.) के ग्राम पकड़डीहा में हुआ था। इनके पिता पंडित प्रसिद्ध नारायण मिश्र की विद्वत्ता की दूर-दूर तक धाक थी। इनकी माता गौरादेवी की भी लोक संस्कृति में अगाध आस्था थी। इस कारण बालपन से ही विद्यानिवास के मन में भारत, भारतीयता और हिन्दुत्व के प्रति प्रेम जाग्रत हो गया।


प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा गोरखपुर में प्राप्त कर ये उच्च शिक्षा के प्रसिद्ध केन्द्र प्रयाग और फिर काशी आ गये। प्रयाग विश्वविद्यालय में हिन्दी के विभागाध्यक्ष वेदमूर्ति क्षेत्रेश चन्द्र चट्टोपाध्याय इनके प्रेरक एवं गुरु थे। इन्होंने अपने शोधकार्य के लिए पाणिनी की अष्टाध्यायी को चुना। यह एक जटिल विषय था; पर विद्यानिवास जी ने इस पर कठोर परिश्रम किया। इसके लिए इन्हें बड़े-बड़े विद्वानों से प्रशंसा और शुभकामनाएँ मिलीं।


1942 में राधिका देवी से विवाह के बाद उन्होंने अध्यापन को अपनी आजीविका का आधार बनाया। इसका प्रारम्भ गोरखपुर से ही हुआ, जो आगे चलकर विश्वप्रसिद्ध कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय तक पहुँचा। 


विद्यानिवास जी का व्यक्तित्व बहुआयामी था। उन्होंने स्वयं को केवल अध्यापन तक ही सीमित नहीं रखा। दस साल तक वे आकाशवाणी मध्य प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग में भी कार्यरत रहे। प्रसार भारती के सदस्य के नाते भी उनका योगदान उल्लेखनीय रहा।


लेखन के क्षेत्र में उन्होंने प्रायः सभी विधाओं में काम किया है। उनका मानना था कि साहित्य और संस्कृति में कोई भेद नहीं है। अपने अनुभव में तपकर जब साहित्य का सृजन होगा, तभी उसमें सच्चे जीवन मूल्यों की सुगन्ध आयेगी; पर लेखन में उनका प्रिय विषय ललित निबन्ध था। 


उनकी मान्यता थी कि हृदय में उतरे बिना ललित निबन्ध नहीं लिखा जा सकता। उनके निबन्ध इस कसौटी पर खरे उतरते हैं और इसीलिए वे पाठक के अन्तर्मन को छू जाते हैं। वे काशी विद्यापीठ, हिन्दी विद्यापीठ (देवधर) और सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे।


डा. विद्यानिवास मिश्र की प्रमुख कृतियों में तुम चन्दन हम पानी, गाँव का मन, आँगन का पंछी, भ्रमरानन्द के पत्र, कँटीले तारों के आर-पार, बंजारा मन, अग्निरथ, मैंने सिल पहुँचाई..आदि हैं। 2003 ई0 में राष्ट्रपति महोदय ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया। 


यों तो वे विदेश में लम्बे समय तक अध्यापक रहे; पर रामायण सम्मेलन तथा विश्व हिन्दी सम्मेलनों के माध्यम से भी उन्होंने अनेक देशों में हिन्दी और हिन्दुत्व का प्रचार-प्रसार किया।


विद्यानिवास जी सिद्धहस्त लेखक, वक्ता तथा एक कुशल सम्पादक भी थे। वे कुछ समय दैनिक नवभारत टाइम्स के सम्पादक रहे। दिल्ली से प्रकाशित मासिक पत्रिका साहित्य अमृत के वे संस्थापक सम्पादक थे। 1987 में उन्हें पद्मश्री तथा 1999 में पद्मभूषण की उपाधि से अलंकृत किया गया। 


इसके अतिरिक्त साहित्य अकादमी सम्मान, व्यास सम्मान, शंकर सम्मान, भारत भारती और सरस्वती सम्मान भी प्राप्त हुए। महाभारत के काव्यार्थ ग्रन्थ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ ने उन्हें मूर्तिदेवी पुरस्कार से विभूषित किया।


साहित्य शिरोमणि डा. विद्यानिवास मिश्र का 14 फरवरी, 2005 को एक कार दुर्घटना में देहान्त हुआ।

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14 जनवरी/जन्म-दिवस



विकलांग विश्वविद्यालय के निर्माता स्वामी रामभद्राचार्य 


किसी भी व्यक्ति के जीवन में नेत्रों का अत्यधिक महत्व है। नेत्रों के बिना उसका जीवन अधूरा है; पर नेत्र न होते हुए भी अपने जीवन को समाज सेवा का आदर्श बना देना सचमुच किसी दैवी प्रतिभा का ही काम है। जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज ऐसे ही व्यक्तित्व हैं।


स्वामी जी का जन्म ग्राम शादी खुर्द (जौनपुर, उ.प्र.) में 14 जनवरी, 1950 को पं. राजदेव मिश्र एवं शचीदेवी के घर में हुआ था। जन्म के समय ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की कि यह बालक अति प्रतिभावान होगा; पर दो माह की अवस्था में इनके नेत्रों में रोहु रोग हो गया। नीम हकीम के इलाज से इनकी नेत्र ज्योति सदा के लिए चली गयी। पूरे घर में शोक छा गया; पर इन्होंने अपने मन में कभी निराशा के अंधकार को स्थान नहीं दिया।


चार वर्ष की अवस्था में ये कविता करने लगे। 15 दिन में गीता और श्रीरामचरित मानस तो सुनने से ही याद हो गये। इसके बाद इन्होंने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से नव्य व्याकरणाचार्य, विद्या वारिधि (पी-एच.डी) व विद्या वाचस्पति (डी.लिट) जैसी उपाधियाँ प्राप्त कीं। छात्र जीवन में पढ़े एवं सुने गये सैकड़ों ग्रन्थ उन्हें कण्ठस्थ हैं। हिन्दी, संस्कृत व अंग्रेजी सहित 14 भाषाओं के वे ज्ञाता हैं।


अध्ययन के साथ-साथ मौलिक लेखन के क्षेत्र में भी स्वामी जी का काम अद्भुत है। इन्होंने 80 ग्रन्थों की रचना की है। इन ग्रन्थों में जहाँ उत्कृष्ट दर्शन और गहन अध्यात्मिक चिन्तन के दर्शन होते हैं, वहीं करगिल विजय पर लिखा नाटक ‘उत्साह’ इन्हें समकालीन जगत से जोड़ता है। सभी प्रमुख उपनिषदों का आपने भाष्य किया है। ‘प्रस्थानत्रयी’ के इनके द्वारा किये गये भाष्य का विमोचन श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था।


बचपन से ही स्वामी जी को चौपाल पर बैठकर रामकथा सुनाने का शौक था। आगे चलकर वे भागवत, महाभारत आदि ग्रन्थों की भी व्याख्या करने लगे। जब समाजसेवा के लिए घर बाधा बनने लगा, तो इन्होंने 1983 में घर ही नहीं, अपना नाम गिरिधर मिश्र भी छोड़ दिया। 


स्वामी जी ने अब चित्रकूट में डेरा लगाया और श्री रामभद्राचार्य के नाम से प्रसिद्ध हो गये। 1987 में इन्होंने यहाँ तुलसी पीठ की स्थापना की। 1998 के कुम्भ में स्वामी जी को जगद्गुरु तुलसी पीठाधीश्वर घोषित किया गया।


तत्कालीन राष्ट्रपति डा. शंकरदयाल शर्मा के आग्रह पर स्वामी जी ने इंडोनेशिया में आयोजित अंतरराष्ट्रीय रामायण सम्मेलन में भारतीय शिष्टमंडल का नेतृत्व किया। इसके बाद वे मारीशस, सिंगापुर, ब्रिटेन तथा अन्य अनेक देशों के प्रवास पर गये।


स्वयं नेत्रहीन होने के कारण स्वामी जी को नेत्रहीनों एवं विकलांगों के कष्टों का पता है। इसलिए उन्होंने चित्रकूट में विश्व का पहला आवासीय विकलांग विश्विविद्यालय स्थापित किया। इसमें सभी प्रकार के विकलांग शिक्षा पाते हैं। इसके अतिरिक्त विकलांगों के लिए गोशाला व अन्न क्षेत्र भी है। राजकोट (गुजरात) में महाराज जी के प्रयास से सौ बिस्तरों का जयनाथ अस्पताल, बालमन्दिर, ब्लड बैंक आदि का संचालन हो रहा है।


विनम्रता एवं ज्ञान की प्रतिमूर्ति स्वामी रामभद्राचार्य जी अपने जीवन दर्शन को निम्न पंक्तियों में व्यक्त करते हैं।


मानवता है मेरा मन्दिर, मैं हूँ उसका एक पुजारी

हैं विकलांग महेश्वर मेरे, मैं हूँ उनका एक पुजारी।

................................इस प्रकार के भाव पूण्य संदेश के लेखक एवं भेजने वाले महावीर सिघंल मो 9897230196

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