अमर बलिदानी सोहनलाल पाठक राजा बख्तावर सिंह साहित्यकार दुर्गा भागवत के जन्मदिन पर विशेष महावीर संगल

 10 फरवरी/बलिदान-दिवस



अमर बलिदानी सोहनलाल पाठक


भारत की स्वतन्त्रता के लिए देश ही नहीं विदेशों में भी प्रयत्न करते हुए अनेक वीरों ने बलिदान दिये हैं। सोहनलाल पाठक इन्हीं में से एक थे। उनका जन्म पंजाब के अमृतसर जिले के पट्टी गाँव में सात जनवरी, 1883 को श्री चंदाराम के घर में हुआ था। पढ़ने में तेज होने के कारण उन्हें कक्षा पाँच से मिडिल तक छात्रवृत्ति मिली थी। मिडिल उत्तीर्ण कर उन्होंने नहर विभाग में नौकरी कर ली। फिर और पढ़ने की इच्छा हुई, तो नौकरी छोड़ दी। नार्मल परीक्षा उत्तीर्ण कर वे लाहौर के डी.ए.वी. हाईस्कूल में पढ़ाने लगे।


एक बार विद्यालय में जमालुद्दीन खलीफा नामक निरीक्षक आया। उसने बच्चों से कोई गीत सुनवाने को कहा। देश और धर्म के प्रेमी पाठक जी ने एक छात्र से वीर हकीकत के बलिदान वाला गीत सुनवा दिया। इससे वह बहुत नाराज हुआ। इन्हीं दिनों पाठक जी का सम्पर्क स्वतन्त्रता सेनानी लाला हरदयाल से हुआ। वे उनसे प्रायः मिलने लगे। इस पर विद्यालय के प्रधानाचार्य ने उनसे कहा कि यदि वे हरदयाल जी से सम्पर्क रखेंगे, तो उन्हें निकाल दिया जाएगा। यह वातावरण देखकर उन्होंने स्वयं ही नौकरी से त्यागपत्र दे दिया।


जब लाला लाजपतराय जी को यह पता लगा, तो उन्होंने सोहनलाल पाठक को ब्रह्मचारी आश्रम में नियुक्ति दे दी। पाठक जी के एक मित्र सरदार ज्ञानसिंह बैंकाक में थे। उन्होंने किराया भेजकर पाठक जी को भी वहीं बुला लिया। दोनों मिलकर वहाँ भारत की स्वतन्त्रता की अलख जगाने लगे; पर वहाँ की सरकार अंग्रेजों को नाराज नहीं करना चाहती थी, अतः पाठक जी अमरीका जाकर गदर पार्टी में काम करने लगे। इससे पूर्व वे हांगकांग गये तथा वहाँ एक विद्यालय में काम किया। विद्यालय में पढ़ाते हुए भी वे छात्रों के बीच प्रायः देश की स्वतन्त्रता की बातें करते रहते थे।


हांगकांग से वे मनीला चले गये और वहाँ बन्दूक चलाना सीखा। अमरीका में वे लाला हरदयाल और भाई परमानन्द के साथ काम करते थे। एक बार दल के निर्णय के अनुसार उन्हें बर्मा होकर भारत लौटने को कहा गया। बैंकाक आकर उन्होंने सरदार बुढ्डा सिंह और बाबू अमरसिंह के साथ सैनिक छावनियों में सम्पर्क किया। वे भारतीय सैनिकों से कहते थे कि जान ही देनी है, तो अपने देश के लिए दो। जिन्होंने हमें गुलाम बनाया है, जो हमारे देश के नागरिकों पर अत्याचार कर रहे हैं, उनके लिए प्राण क्यों देते हो ? इससे छावनियों का वातावरण बदलने लगा।


पाठक जी ने स्याम में पक्कों नामक स्थान पर एक सम्मेलन बुलाया। वहां से एक कार्यकर्ता को उन्होंने चीन के चिपिनटन नामक स्थान पर भेजा, जहाँ जर्मन अधिकारी 200 भारतीय सैनिकों को बर्मा पर आक्रमण के लिए प्रशिक्षित कर रहे थे। पाठक जी वस्तुतः किसी गुप्त एवं लम्बी योजना पर काम कर रहे थे; पर एक मुखबिर ने उन्हें पकड़वा दिया। उस समय उनके पास तीन रिवाल्वर तथा 250 कारतूस थे। उन्हें मांडले जेल भेज दिया गया। स्वाभिमानी पाठक जी जेल में बड़े से बड़े अधिकारी के आने पर भी खड़े नहीं होते थे। 


यद्यपि उन्होंने किसी को मारा नहीं था; पर शासन विरोधी साहित्य छापने तथा विद्रोह भड़काने के आरोप में उन पर मुकदमा चला। उनके साथ पकड़े गये मुस्तफा हुसैन, अमरसिंह, अली अहमद सादिक तथा रामरक्खा को कालेपानी की सजा दी गयी; पर पाठक जी को सबसे खतरनाक समझकर 10 फरवरी, 1916 को मातृभूमि से दूर बर्मा की मांडले जेल में फाँसी दे दी गयी।



10 फरवरी/बलिदान-दिवस



राजा बख्तावर सिंह का बलिदान


मध्य प्रदेश के धार जिले में विन्ध्य पर्वत की सुरम्य शृंखलाओं के बीच द्वापरकालीन ऐतिहासिक अझमेरा नगर बसा है। 1856 में यहाँ के राजा बख्तावरसिंह ने अंग्रेजों से खुला युद्ध किया; पर उनके आसपास के कुछ राजा अंग्रेजों से मिलकर चलने में ही अपनी भलाई समझते थे।


राजा ने इससे हताश न होते हुए तीन जुलाई, 1857 को भोपावर छावनी पर हमला कर उसे कब्जे में ले लिया। इससे घबराकर कैप्टेन हचिन्सन अपने परिवार सहित वेश बदलकर झाबुआ भाग गया। क्रान्तिकारियों ने उसका पीछा किया; पर झाबुआ के राजा ने उन्हें संरक्षण दे दिया। इससे उनकी जान बच गयी।


भोपावर से बख्तावर सिंह को पर्याप्त युद्ध सामग्री हाथ लगी। छावनी में आग लगाकर वे वापस लौट आये। उनकी वीरता की बात सुनकर धार के 400 युवक भी उनकी सेना में शामिल हो गये; पर अगस्त, 1857 में इन्दौर के राजा तुकोजीराव होल्कर के सहयोग से अंग्रेजों ने फिर भोपावर छावनी को अपने नियन्त्रण में ले लिया।


इससे नाराज होकर बख्तावर सिंह ने 10 अक्तूबर, 1857 को फिर से भोपावर पर हमला बोल दिया। इस बार राजगढ़ की सेना भी उनके साथ थी। तीन घंटे के संघर्ष के बाद सफलता एक बार फिर राजा बख्तावर सिंह को ही मिली। युद्ध सामग्री को कब्जे में कर उन्होंने सैन्य छावनी के सभी भवनों को ध्वस्त कर दिया।


ब्रिटिश सेना ने भोपावर छावनी के पास स्थित सरदारपुर में मोर्चा लगाया। जब राजा की सेना वापस लौट रही थी, तो ब्रिटिश तोपों ने उन पर गोले बरसाये; पर राजा ने अपने सब सैनिकों को एक ओर लगाकर सरदारपुर शहर में प्रवेश पा लिया। इससे घबराकर ब्रिटिश फौज हथियार फेंककर भाग गयी। लूट का सामान लेकर जब राजा अझमेरा पहुँचे, तो धार नरेश के मामा भीमराव भोंसले ने उनका भव्य स्वागत किया।


इसके बाद राजा ने मानपुर गुजरी की छावनी पर तीन ओर से हमलाकर उसे भी अपने अधिकार में ले लिया। 18 अक्तूबर को उन्होंने मंडलेश्वर छावनी पर हमला कर दिया। वहाँ तैनात कैप्टेन केण्टीज व जनरल क्लार्क महू भाग गये। राजा के बढ़ते उत्साह, साहस एवं सफलताओं से घबराकर अंग्रेजों ने एक बड़ी फौज के साथ 31 अक्तूबर, 1857 को धार के किले पर कब्जा कर लिया। नवम्बर में उन्होंने अझमेरा पर भी हमला किया। 


बख्तावर सिंह का इतना आतंक था कि ब्रिटिश सैनिक बड़ी कठिनाई से इसके लिए तैयार हुए; पर इस बार राजा का भाग्य अच्छा नहीं था। तोपों से किले के दरवाजे तोड़कर अंग्रेज सेना नगर में घुस गयी। राजा अपने अंगरक्षकों के साथ धार की ओर निकल गये; पर बीच में ही उन्हें धोखे से गिरफ्तार कर महू जेल में बन्द कर दिया गया और घोर यातनाएँ दीं। इसके बाद उन्हें इन्दौर लाया गया। राजा के सामने 21 दिसम्बर, 1857 को कामदार गुलाबराज पटवारी, मोहनलाल ठाकुर, भवानीसिंह सन्दला आदि उनके कई साथियों को फाँसी दे दी गयी; पर राजा विचलित नहीं हुए। 


वकील चिमनलाल राम, सेवक मंशाराम तथा नमाजवाचक फकीर को काल कोठरी में बन्द कर दिया गया, जहाँ घोर शारीरिक एवं मानसिक यातनाएँ सहते हुए उन्होंने दम तोड़ा। अन्ततः 10 फरवरी, 1858 को इन्दौर के एम.टी.एच कम्पाउण्ड में देश के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वाले राजा बख्तावर सिंह को भी फाँसी पर चढ़ा दिया गया।



10 फरवरी/जन्म-दिवस



लोक साहित्य व संस्कृति की अध्येता डा. दुर्गा भागवत


भारतीय लोक साहित्य एवं संस्कृति के अध्ययन, अनुशीलन तथा लेखन में अपना जीवन समर्पित करने वाली विदुषी डा0 दुर्गा नारायण भागवत का जन्म 10 फरवरी, 1910 को इंदौर (म.प्र.) में हुआ था। इनके पिता 1915 में नासिक आ गये, अतः उनकी मैट्रिक तक की शिक्षा नासिक में हुई। इसके बाद बी.ए करने के लिए उन्होंने मुंबई के सेंट जेवियर कॉलिज में प्रवेश लिया। उन्हीं दिनों देश में स्वाधीनता आंदोलन भी तेजी पर था। अतः दुर्गाबाई पढ़ाई बीच में छोड़कर उस आंदोलन में कूद पड़ीं। 


कुछ समय बाद अपनी पढ़ाई फिर प्रारम्भ कर उन्होंने 1932 में बी.ए की डिग्री प्राप्त की। एम.ए में उन्होंने आद्य शंकराचार्य से पूर्व के कालखंड का अध्ययन कर बौद्ध धर्म पर शोध प्रबन्ध लिखा। उन दिनों इस विषय के छात्र प्रायः मैक्समूलर के ग्रन्थों को आधार बनाते थे; पर दुर्गा भागवत ने पाली और अर्धमागधी भाषा सीखकर उनके मूल ग्रन्थों द्वारा अपना शोध पूरा किया। इस शोध प्रबन्ध को परीक्षण के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय भेजा गया। 


1938 में दुर्गाबाई को ‘सिन्थेसिस ऑफ हिन्दू एण्ड ट्राइबल कल्चर ऑफ सेंट्रल प्राविन्सेस ऑफ इंडिया’ विषय पर पी-एच.डी की उपाधि मिली। तीन वर्ष तक मध्यप्रदेश के दुर्गम वनवासी क्षेत्रों में घूमकर उन्होंने वनवासियों की बोली, परम्परा, रीति-रिवाज, खानपान तथा समस्याओं का अध्ययन किया। इससे वे अनेक रोगों की शिकार होकर जीवन भर कष्ट भोगती रहीं। 


दुनिया भर का लोक साहित्य, बाल साहित्य, वनवासी लोकजीवन, परम्परा व संस्कृति उनके अध्ययन तथा लेखन के प्रिय विषय थे। वे भारतीय संस्कृति को टुकड़ों में बांटने के विरुद्ध थीं। उनका मत था कि पूर्व के संस्कारों का अभिसरण ही संस्कृति है। उन्होंने सैकड़ों कहानी, लेख, शोध प्रबंध तथा पुस्तकें लिखी हैं। अनुवाद के क्षेत्र में भी उन्होंने प्रचुर कार्य किया। 


1957 से 1959 तक वे गोखले इंस्टीट्यूट, पुणे में समाज शास्त्र की अध्यक्ष रहीं। 1956 में वे ‘तमाशा परिषद’ की अध्यक्ष बनीं। इस पद पर रहते हुए उन्होंने तमाशा कलाकारों के जीवन का अध्ययन किया। ये कलाकार कैसी निर्धनता और अपमानजनक परिस्थिति में रह रहे हैं, यह देखकर उनका हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने वयोवृद्ध तमाशा साम्राज्ञी विठाबाई नारायण गावकर की सहायतार्थ निधि एकत्र की तथा उनका सार्वजनिक सम्मान किया।


1975 में देश में आपातकाल थोप दिया गया। उसी वर्ष कराड में हुए 51वें मराठी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पद से उन्होंने आपातकाल का प्रबल विरोध किया। उन्होंने लेखकों से सत्य और न्याय के पक्ष में कलम चलाने का आग्रह किया। वहां केन्द्रीय मंत्री श्री यशवंत राव बलवंत राव चह्नाण भी उपस्थित थे। इस कारण एशियाटिक सोसाइटी के पुस्तकालय में पढ़ते हुए उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया; पर उन्होंने झुकना स्वीकार नहीं किया।


दुर्गाबाई भागवत ने 1977 के चुनाव में कांग्रेस का खुला विरोध किया। उन्होंने पद्मश्री तथा ज्ञानपीठ जैसे साहित्य के प्रतिष्ठित सम्मानों को भी ठुकरा दिया। उनकी ऋतुचक्र, भावमुद्रा, व्याधपर्व, रूपगन्ध जैसी अनेक पुस्तकों को महाराष्ट्र शासन ने तथा पैस को साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत किया।


दुर्गाबाई ने अविवाहित रहते हुए समाज सेवा और साहित्य साधना को ही जीवन का ध्येय बनाया। सात मई, 2002 को मुंबई में उनका देहांत हुआ। 

(संदर्भ : राष्ट्रधर्म दिसम्बर 2010 तथा विकीपीडिया)

....................................इस प्रकार के भाव पूण्य संदेश के लेखक एवं भेजने वाले महावीर सिघंल मो 9897230196

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