15 मार्च/जन्म-तिथि
कुश्ती को समर्पित पदम्श्री गुरु हनुमान
भारत में कुश्ती गांव-गांव में प्रचलित है। हर गांव में सुबह और शाम नवयुवक अखाड़े में व्यायाम करते मिल जाते हैं; पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की इसमें कोई पहचान नहीं थी। इस पहचान को दिलाने का श्रेय गुरु हनुमान को है। उनका असली नाम विजय पाल था; पर आगे चलकर यह नाम लुप्त हो गया।
उनका जन्म राजस्थान के चिड़ावा गांव में 15 मार्च, 1901 को एक निर्धन परिवार में हुआ था। निर्धनता और परिवार में शिक्षा के प्रति जागरूकता के अभाव में उनकी विद्यालयीन शिक्षा बिल्कुल नहीं हुई; पर गांव के अखाड़े में कुश्ती के लिए वे नियमित रूप से जाते थे।
1920 में रोजगार की तलाश में दिल्ली आकर उन्होंने सब्जी मंडी में बिड़ला मिल के पास दुकान खोली। उनके कसरती शरीर को देखकर 1925 में मिल के मालिक श्री कृष्ण कुमार बिड़ला ने उन्हें एक भूखंड देकर कुश्ती के लिए नवयुवकों को तैयार करने को कहा। इस प्रकार स्थापित ‘बिड़ला मिल व्यायामशाला’ ही फिर ‘गुरु हनुमान अखाड़ा’ के नाम से लोकप्रिय हुई।
कुश्ती को समर्पित गुरु हनुमान अविवाहित रहे। अपने शिष्यों को ही वे पुत्रवत स्नेह करते थे। वे पूर्ण शाकाहारी थे तथा इस मान्यता के विरोधी थे कि मांसाहार से ही शक्ति प्राप्त होती है। वे प्रातः तीन बजे उठ कर शिष्यों के प्रशिक्षण में लग जाते थे। उनके अखाड़े के छात्र अपना भोजन स्वयं बनाते थे। अनुशासनप्रिय गुरु जी दिनचर्या में जरा भी ढिलाई पसंद नहीं करते थे।
गुरु जी स्वाधीनता संग्राम में भी सक्रिय थे। अनेक फरार क्रांतिकारी उनके पास आश्रय पाते थे। 1940 में एक क्रांतिकारी की तलाश में पुलिस ने अखाड़े में छापा मारा; पर गुरु जी ने उसे पुलिस को नहीं सौंपा। इससे चिढ़कर पुलिस उन्हें ही पकड़कर ले गयी। उन्हें अमानवीय यातनाएं दी गयीं। कई घंटे तक कुएं में उल्टा लटका कर रखा गया; पर गुरु जी विचलित नहीं हुए।
1947 के बाद उनका अखाड़ा उत्तर भारत के पहलवानों का तीर्थ बन गया; पर गुरु जी ने उसे कभी व्यावसायिक नहीं होने दिया। धीरे-धीरे उनके शिष्य खेल प्रतियोगिताएं जीतने लगे; पर अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के नियम अलग थे। वहां कुश्ती भी रबड़ के गद्दों पर होती थी। गुरु हनुमान ने उन नियमों को समझकर अपने पहलवानों को वैसा ही प्रशिक्षण दिया। इससे उनके शिष्य उन प्रतियोगिताओं में भी स्थान पाने लगे।
गुरु जी ने कलाई पकड़ जैसे अनेक नये दांव भी विकसित किये। विपक्षी काफी प्रयास के बाद भी जब कलाई नहीं छुड़ा पाता था, तो वह मानसिक रूप से कमजोर पड़ जाता था। इसी समय वे उसे चित कर देते थे। उनका यह दांव बहुत लोकप्रिय हुआ।
उनके अखाड़े को विशेष प्रसिद्धि तब मिली, जब 1972 के राष्ट्रमंडल खेलों में उनके शिष्य वेदप्रकाश, प्रेमनाथ और सुदेश कुमार ने स्वर्ण पदक जीता। इसी प्रकार 1982 के एशियायी खेलों में उनके शिष्य सतपाल एवं करतार सिंह ने स्वर्ण पदक जीता। 1986 में भी उनके शिष्य दो स्वर्ण पदक लाये। सात शिष्यों ने भारत की सर्वश्रेष्ठ कुश्ती प्रतियोगिताएं जीतीं।
उनके आठ शिष्यों को भारत में खेल के लिए दिया जाने वाला सर्वश्रेष्ठ ‘अर्जुन पुरस्कार’ मिला। 1988 में भारत सरकार ने उन्हें खेल प्रशिक्षकों को दिये जाने वाले ‘द्रोणाचार्य पुरस्कार’ से तथा 1980 में ‘पदम्श्री’ से सम्मानित किया।
24 मई, 1999 को गुरु जी गंगा स्नान के लिए हरिद्वार जा रहे थे। मार्ग में मेरठ के निकट उनकी कार का टायर फटने से वह एक पेड़ से टकरा गयी। इस दुर्घटना में ही उनका देहांत हो गया। उनके शिष्य तथा नये पहलवान आज भी उस अखाड़े की मिट्टी को पवित्र मानकर माथे से लगाते हैं।
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15 मार्च/जन्म-दिवस
समर्पित व्यक्तित्व सुनील उपाध्याय
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों से प्रेरित सैकड़ों संगठनों मंे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् का विशेष स्थान है। अन्य संगठनों में जहाँ सभी आयु वर्ग के लोग होते हैं, वहाँ विद्यार्थी परिषद् शुद्ध युवाओं का संगठन है। परिषद के काम को हिमाचल प्रदेश में सुदृढ़ आधार देने वाले सुनील उपाध्याय का जन्म 15 मार्च, 1959 को जम्मू-कश्मीर के कठुआ जिले में हुआ था।
वे श्री विद्या प्रकाश एवं श्रीमती पद्मावती देवी की छठी सन्तान थे। बचपन से ही उनमें नेतृत्व करने की अपार क्षमता थी। 1975 में जब देश में आपातकाल लगा, तो वे कक्षा दस के छात्र थे। कुछ ही दिनों बाद उनके बड़े भाई का विवाह भी होने वाला था। इसके बावजूद उन्होंने संगठन की योजना से सत्याग्रह किया और नौ माह तक जेल में रहे।
बी.ए. में पढ़ते समय कठुआ स्थित बिड़ला समूह की एक कपड़ा मिल में मजदूरों ने हड़ताल की। मालिकों ने जब मजदूरों का दमन शुरू किया, तो सुनील अपने साथियों के साथ उस हड़ताल में कूद गये और मालिकों को झुकने के लिए मजबूर कर दिया। उस समय उन पर जम्मू-कश्मीर का विद्यार्थी परिषद् का काम था। उन्होंने वहाँ भी अनेक छात्र आन्दोलनों का नेतृत्व किया।
सुनील उपाध्याय के मन में इस बात को लेकर बहुत बेचैनी थी कि पावन देवभूमि हिमालय में कम्युनिस्ट अपने पैर फैला रहे हैं। उन्होंने अपनी पीड़ा वरिष्ठ अधिकारियों के सम्मुख रखी। उन्होंने सुनील जी को हिमाचल प्रदेश जाकर विद्यार्थी परिषद के काम को मजबूत करने को कहा।
सुनील जी को चुनौतीपूर्ण काम करना पसंद था। अतः वे तुरन्त तैयार हो गये और इसके बाद वे अन्तिम साँस तक हिमाचल में ही काम करते रहे। 1979-80 में हिमाचल प्रदेश में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद सर्वाधिक शक्तिशाली संगठन बन कर उभरा। इसका श्रेय निःसन्देह सुनील उपाध्याय के परिश्रम, समर्पण और कार्य कुशलता को जाता है।
1981 में हिमाचल विश्वविद्यालय के प्रबन्धकों ने वामपन्थियों से मिलकर एम.बी.ए. की परीक्षा में धाँधली की। विद्यार्थी परिषद ने इसका कड़ा विरोध किया। जब प्रशासन के कान पर जूँ नहीं रेंगी, तो सुनील उपाध्याय अपने कुछ साथियों के साथ आमरण अनशन पर बैठ गये। आठ दिन बाद प्रशासन को झुकना पड़ा। इसी प्रकार छात्रावासों की कमी के विरुद्ध हुए आन्दोलन में भी उन्हें सफलता मिली। इससे विद्यार्थी परिषद का डंका पूरे विश्वविद्यालय में बजने लगा और 1982 के चुनावों में परिषद को अच्छी सफलता मिली।
पर इस धुआँधार परिश्रम का सुनील जी के स्वास्थ्य पर बहुत खराब असर हुआ। रात में सफर, दिन में काम, भोजन की भी कोई उचित व्यवस्था नहीं। ऐसे में परिषद के 1985 में पटना में हुए अधिवेशन में उनके मुँह से खून निकलने लगा। जाँच से पता लगा कि उनके फेफड़े खराब हो चुके हैं। उन्हें तुरन्त दिल्ली और फिर वहाँ से मुम्बई भेजा गया। आठ महीने तक मुम्बई के अस्पताल में जीवन और मृत्यु से वे संघर्ष करते रहे।
बीमारी में भी उनके मन में केवल यही विचार था कि हिमाचल प्रदेश में विद्यार्थी परिषद के काम को सबल कैसे बनाया जा सकता है। वे अपनी सेवा में लगे कार्यकर्ताओं से इसी बारे में बोलते रहते थे। मृत्यु के इतने निकट आकर भी उन्हें मृत्यु से भय नहीं था।
12 नवम्बर, 1985 (दीपावली) की प्रातः चार बजे उनका जीवन दीप सदा के लिए बुझ गया; पर हिमाचल प्रदेश में विद्यार्थी परिषद के दीप को वे सदा के लिए आलोकित कर गये। इस प्रकार के भाव पूण्य संदेश के लेखक एवं भेजने वाले महावीर सिघंल मो 9897230196