राष्ट्रीय नीति एवं राजनीति की समानता पर लेख के द्वारा बता रहे हैं कमलेश डाभी राजपूत

 लेख


शिर्षक राष्ट्रनीति से राजनीति



*लेखक कमलेश डाभी (राजपूत) पाटण गुजरात*


राष्ट्रनीति और राजनीति, वैसे तो शाब्दिक परिप्रेक्ष्य में अगर देखा जाए तो दोनों बिल्कुल से अलग-अलग अर्थों के साथ भिन्न शब्द हैं। परंतु कहते हैं न हम भारतीयों को हर चीज को जोड़ने की आदत है, फिर चाहे वो गंगा जमुनी तहजीब बनाकर दो धर्मों को आपस में जोड़ने की बात हो, छुआछूत प्रथा को भुलाकर कथित ऊंची-नीची जातियों को आपस में जोड़ने की बात हो, सकारात्मक संवाद करते हुए पड़ोसी देशों को जोड़ने की बात हो, वसुधैव कुटुम्बकम को मूलमंत्र मानते हुए समूचे विश्व में कोरोना वैक्सीन बांटकर सभी देशों को आपस में जोड़ने की बात हो या अनुच्छेद 370 हटाकर कश्मीर को भारत से जोड़ने की बात हो, हमेशा हम जोड़ने की परंपरा के वाहक रहे हैं। इसी प्रकार आज हम इन दो भिन्न शब्दों को एकसाथ जोड़कर उसे समझने का प्रयास करेंगे कि क्या अब समय आ गया है कि देश को इस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए? क्या अब इस राष्ट्र में हो रही राजनीति को अलग दशा देते हुए इसे राष्ट्रनीति की तरफ मोड़ने का समय आ गया है? और अगर वह समय आ गया है तो उसके नेतृत्वकर्ता कौन होंगे? उसका आधार क्या होगा? राष्ट्रनीति से राजनीति की राह पर वो कौन सी चुनौतियां होंगी जो इसके नेतृत्वकर्ताओं को आगे बढ़ने से रोकेंगी और उन चुनौतियों से कैसे निबटा जा सकेगा? 


राष्ट्र पुनर्निर्माण के संकल्प से लेकर उसकी सिद्धि तक की यात्रा में और उस पथ पर अनेकों चुनौतियां हैं पर भारत और भारतीयों के लिए चुनौती क्या बला है। भारतीयों ने तो बड़े-बड़े चुनौतियों को अपने शौर्य और प्रताप से ढ़ेर कर दिया। यहाँ मनोज मुत्तसिर की उस कविता का उद्धरण करना महत्वपूर्ण हो जाता है जिसमें उन्होंने "चुनौतियों का सामना करते हुए भारत का गुणगान किया है"..


देखो हमारी ओर, पहचानो हमें


जो वणभेद कि धरती से धारा निकाल दिया करते थे, एक उंगली पर गोवर्धन उठा लिया करते थे।


हम ही थे वो दिलेर जो चक्रव्यूह में वापस लौटने की विद्या सीखे बगैर गए, और वो भी हम ही थे जिसके फेके हुए पत्थर पानी में भी तैर गए।


हम मारना भी जानते हैं और बचाना भी।


हमने दुश्मन के लिए फाइटर जेट्स बनाये, संगीन बनाई और जब जिंदगी की सांसें टूटने लगी तो हम ही ने वैक्सीन बनाई


और लिख दिया उस वैक्सीन पर सर्वे संतु निरामयः, यानी ईश्वर सिर्फ हमपर ही नहीं सबपर करें दया।


हम जांबाज हैं, जियाले हैं, आंधियों से खेले हैं, बिजलियों के पाले हैं।


हम शांति का सवेरा हैं, इंसानियत के उजाले हैं, पहचानो हमें, हम इंडिया वाले हैं।


राष्ट्रनीति, वह नीति जो राष्ट्र की आधारशिला हो, जिसमें राष्ट्र की आत्मा का वास हो, जिसमें राष्ट्र की ऊर्जा दौड़ती हो, जिसमे राष्ट्र का गौरव छिपा हो, जिससे राष्ट्र को ख्याति मिले, जिसमें राष्ट्र की संपन्नता का मार्ग छिपा हो, जो राष्ट्र को मजबूती के साथ खड़े होने की शक्ति देता हो,  जिसमें विश्व के लिए शांति और बंधुत्व का संदेश शामिल हो, जिसमें हर व्यक्ति को अपनी आशाएं और आकांक्षाएं पूर्ण होती दिखती हो, युवाओं को अपने लिए आत्मनिर्भर होने का मार्ग दिखता हो साथ ही महिलाओं को अपने लिए अवसर बुजुर्गों को अपने लिए सम्मान जिस नीति में दिखाई पड़ता हो वही तो राष्ट्र नीति है। किसी भी राष्ट्रनीति के निर्माण में और उसे पूरा करने में उस राष्ट्र के एक-एक व्यक्ति का योगदान होता है। यह भी कहा जा सकता है कि यह योगदान देना उसका कर्तव्य भी है। अतः यह कहना गलत नहीं होगा कि राष्ट्रनीति वह नीति है जो राष्ट्र के लोगों की नीति है, राष्ट्र के लोगों के लिए नीति है, राष्ट्र के लोगों के द्वारा निर्धारित की गई नीति है।


राष्ट्रनीति और राजनीति में भिन्नताएं तो बहुत हैं। राष्ट्रनीति जहा अपने शालीन स्वभाव से आने वाली पीढ़ी का भविष्य तय कर देती है, विश्व पटल पर अपने राष्ट्र की नित नई कामयाबी गढ़ देती है, समावेशी विकास और समानांतर विचारों के हर द्वार कदम-कदम पर खोल देती है, वहीं राजनीति की बिसात खोखले वादों पर जनता के अरमानों का कत्ल करके बिछाई जाती है, जिसमें सरकारों की तमाम विफलताएं चालाकी से छुपाई जाती है। कभी व्यक्तिगत आक्षेपों तो कभी आडंबरो के दम पर बेतुके आदर्श बाजार में ऊंचे दामों पर बिक़वाये जाते हैं। राष्ट्र निर्माण राष्ट्रनीति का एक अभिन्न अंग है जबकि वहीं राजनीति स्वनिर्माण करता काला भुजंग है। लेकिन इन सब से इतर प्रश्न यह खड़ा होता है कि क्या राष्ट्रनीति और राजनीति एक नहीं हो सकता है? क्या राजनीति के केंद्र में राष्ट्रनीति नहीं हो सकती? 


जवाब है हाँ,  हो सकता है और होना ही चाहिए। विशेषकर भारत भूमि जैसे पुण्य धरा पर जहां के हर व्यक्ति के हृदय में राष्ट्रत्व का बोध है, जहां के हर शिशु को जन्म से ही अपनी धरा की मिट्टी को प्रणाम और राष्ट्र का सम्मान करना सिखाया जाता है। भारत के लोगों ने हमेशा से ऐसे सत्ता व्यवस्था को नकारा है जहां राष्ट्र का सम्मान ना हो। जिस सत्ता को राष्ट्र के गौरव और इसकी सुरक्षा की चिंता ना हो वैसी सत्ता का क्या काम! राजनीति और राजनेताओं में अगर राष्ट्रनीति ना हो तो उसे खोखला माना जाता है, अर्थहीन और दिशाविहीन माना जाता है, क्योंकि भारतीय चिंतन में राजनीति ही जनसेवा का माध्यम बताया गया है और राजनीति जनसेवा का माध्यम तब तक नहीं बन सकता जब तक राजनेताओं में राष्ट्रनीति का बोध और भावनाएं ना हो। यही सेवा और परोपकार की भावना पैदा करना तो राष्ट्र नीति का कार्य है। चूंकि इस समाज में व्यक्ति और व्यवस्था एक दूसरे के पूरक हैं, जैसा व्यक्ति होगा वह अपने लिए ठीक वैसे ही व्यवस्था का निर्माण करेगा। इसलिए राष्ट्रनीतिके पालन के लिए यहां एक शर्त है, शर्त यह है की नेता को चुनने वाली जनता भी राष्ट्रनीति की भावना रखती हो और अपना नेता चुनते वक्त राष्ट्रनीति के आगे किसी भी क्षणिक चीज से समझौता ना कर बैठे। वोट देते समय अगर वह जाति, मत, मजहब को आधार मानकर वोट देंगे तो चुने हुए नेता से राष्ट्रीनीति की अपेक्षा रखना बेमानी होगी। अतः राष्ट्रनीति से राजनीति की राह पर बढ़ने के लिए यह आवश्यक शर्त है कि हम स्वयं को नैतिकता से परिपूर्ण करें क्योंकि नैतिकता किसी भी राष्ट्र की संपन्नता और मजबूती का आधार स्तंभ है।


आज जान-अनजाने इस देश के नागरिक राष्ट्रनीति का हिस्सा बन रहे हैं। पिछले दिनों देश की संसद में कई ऐसे फैसले हुए जिसमे राष्ट्रनीति से राजनीति की ओर बढ़ने की झलक साफ दिखती है। मसलन धारा 370 हो, नागरिकता संशोधन कानून हो, ट्रिपल तलाक बिल हो, इन सभी कानून के माध्यम से लोगों को आपस में जोड़ कर उनका कल्याण करने का उद्देश्य इसमें छिपा दिखता है। यह भी देखा गया कि बड़ी संख्या में लोगों और युवाओं ने इन कानूनों का समर्थन किया जो इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण है कि युवाओं और नागरिकों में राष्ट्रनीति को जानने और समझने की चेतना विकसित हो चुकी है और वो बिना किसी बंधन के राष्ट्रनीति को बढ़ाने वाली दलों का समर्थन भी कर रहे हैं। बस उसे जीवंत रूप देने की आवश्यकता है। परिवर्तन का ध्वजवाहक आखिरकार हम युवा ही होंगे। आजादी से पहले के काल में भी हमने कई ऐसे महान व्यक्तित्व को देखा जिन्होंने अंग्रेजी सत्ता के दमन और उस वक्त के पिछड़े समाज की प्रताड़ना झेल कर भी राष्ट्रनीति का ध्वज थामे रखा और अंत में जीत मिली। इस कड़ी में महिला शिक्षा और छुआछूत के लिए सावित्रीबाई फूले की लड़ाई, सती प्रथा को खत्म करने के लिए राजा राममोहन राय के संघर्ष और राष्ट्र की स्वाधीनता के लिए भगत सिंह जी का स्मरण किया जा सकता है। आज हम अगर महिलाओं को मुख्यधारा में देखकर, संसद में देश के बजट को पेश करते देखकर, राष्ट्र के निर्माण में उनके योगदान को देखकर गौरवान्वित होते हैं तो कहीं ना कहीं इसका श्रेय सावित्रीबाई फूले को जाता है जिनकी दूरद्रष्टा सोच ने इसे परख लिया कि आज की सशक्त महिला कल के समृद्ध भारत का निर्माण करेगी और तमाम बाधाओं के बाद भी जुट गयीं अपने राष्ट्रनीति के स्वार्थहीन लक्ष्य को पूरा करने में। इसलिए इस राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक विशेषकर युवा तरुणाई के भीतर राष्ट्रनीति का बोध होना अत्यंत आवश्यक है। राजनीति, राष्ट्रनीति के बिना खोखला सा है। परंतु राष्ट्रनीति एक लंबी और अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। हम जब विश्व गुरु थे, वैश्विक पटल पर जब हमारी पहचान थी, जब भारत विश्व की जीडीपी में 50% तक योगदान करता था, तब तो हमारे यहां कोई राजनीतिक पार्टी नहीं थी, कोई राजनेता नहीं थे, कोई संसद नहीं था, कोई चुनाव नहीं होते थे। अगर उस वक्त कुछ था तो वह था नैतिकता। उस समय हर व्यक्ति अपने धर्म और संस्कृति का पालन करते हुए नैतिकता की राह पर चलता था। जिसकी सहायता से एक समृद्ध राष्ट्र की पटकथा लिखी गई थी। 


आज छोटी-मोटी चुनौतियां जरूर हैं हमारे सामने। इस वैश्विक चकाचौंध के बीच हमें अब राष्ट्रनीति से राजनीति की ओर जाने की आवश्यकता है। व्यक्तिगत स्वार्थ, लाभ, यश से ऊपर उठकर सामूहिक और राष्ट्र को कैसे लाभ हो और उसे कैसे गौरवशाली बनाएं इस पर चिंतन की आवश्यकता है। राजनीति जैसे क्षणिक चीजों का शिकार ना होकर अनवरत चलने वाली राष्ट्रनीति की यात्रा में शामिल होकर अगर हम यह संकल्प लें कि सामाजिक एकता के कफन को इस राष्ट्र में राजनीति का साफा नहीं बनने देंगे तो वह दिन दूर नहीं होगा जब सारे राजनीतिक स्वतः राष्ट्रनीति को अपने केंद्र में रखेंगे और तभी पूरा होगा हमारा इस राष्ट्र को वैभवशाली बनाने का सपना।

प्रस्तुति रिपोटर चंद्रकांत सी पूजारी

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