17 अप्रैल/बलिदान-दिवस
अमर बलिदानी तात्या टोपे
छत्रपति शिवाजी के उत्तराधिकारी पेशवाओं ने उनकी विरासत को बड़ी सावधानी से सँभाला। अंग्रेजों ने उनका प्रभुत्व समाप्त कर पेशवा बाजीराव द्वितीय को आठ लाख वार्षिक पेंशन देकर कानपुर के पास बिठूर में नजरबन्द कर दिया। इनके दरबारी धर्माध्यक्ष रघुनाथ पाण्डुरंग भी इनके साथ बिठूर आ गये। इन्हीं रघुनाथ जी के आठ पुत्रों में से एक का नाम तात्या टोपे था।
1857 में जब स्वाधीनता की ज्वाला धधकी, तो नाना साहब के साथ तात्या भी इस यज्ञ में कूद पड़े। बिठूर, कानपुर, कालपी और ग्वालियर में तात्या ने देशभक्त सैनिकों की अनेक टुकडि़यों को संगठित किया। कानपुर में अंग्रेज अधिकारी विडनहम तैनात था। तात्या ने अचानक हमला कर कानपुर पर कब्जा कर लिया। यह देखकर अंग्रेजों ने नागपुर, महू तथा लखनऊ की छावनियों से सेना बुला ली। अतः तात्या को कानपुर और कालपी से पीछे हटना पड़ा।
इसी बीच रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी में संघर्ष का बिगुल बजा दिया। तात्या ने उनके साथ मिलकर ग्वालियर पर अधिकार कर लिया। तात्या दो वर्ष तक सतत अंग्रेजों से संघर्ष करते रहे। चम्बल से नर्मदा के इस पार तक तथा अलवर से झालावाड़ तक तात्या की तलवार अंग्रेजों से लोहा लेती रही। इस युद्ध में तात्या के विश्वस्त साथी एक-एक कर बलिदान होते गये।
अकेले होने के बाद भी वीर तात्या टोपे ने धैर्य और साहस नहीं खोया।
तात्या टोपे केवल सैनिक ही नहीं, एक कुशल योजनाकार भी थे। उन्होंने झालरा पाटन की सारी सेना को अपने पक्ष में कर वहाँ से 15 लाख रुपया तथा 35 तोपें अपने अधिकार में ले लीं।
इससे घबराकर अंग्रेजों ने छह सेनापतियों को एक साथ भेजा; पर तात्या उनकी घेरेबन्दी तोड़कर नागपुर पहुँच गये। अब उनके पास सेना बहुत कम रह गयी थी। नागपुर से वापसी में खरगौन में अंग्रेजों से फिर भिड़न्त हुई। सात अपै्रल, 1859 को किसी के बताने पर पाटन के जंगलों में उन्हें शासन ने दबोच लिया। ग्वालियर (म.प्र.) के पास शिवपुरी के न्यायालय में एक नाटक रचा गया, जिसका परिणाम पहले से ही निश्चित था।
सरकारी पक्ष ने जब उन्हें गद्दार कहा, तो तात्या टोपे ने उच्च स्वर में कहा, ‘‘मैं कभी अंग्रेजों की प्रजा या नौकर नहीं रहा, तो मैं गद्दार कैसे हुआ ? मैं पेशवाओं का सेवक रहा हूँ। जब उन्होंने युद्ध छेड़ा, तो मैंने एक पक्के सेवक की तरह उनका साथ दिया। मुझे अंग्रेजों के न्याय में विश्वास नहीं है। या तो मुझे छोड़ दें या फिर युद्ध बन्दी की तरह तोप से उड़ा दें।’’
अन्ततः 17 अप्रैल 1859 को उन्हें एक पेड़ पर फाँसी दे दी गयी। कई इतिहासकारों का मत है कि तात्या कभी पकड़े ही नहीं गये। जिसे फाँसी दी गयी, वह नारायणराव भागवत थे, जो तात्या को बचाने हेतु स्वयं फांसी चढ़ गये। तात्या संन्यासी वेष में कई बार अपने पूर्वजों के स्थान येवला आये।
इतिहासकार श्रीनिवास बालासाहब हर्डीकर की पुस्तक ‘तात्या टोपे’ के अनुसार तात्या 1861 में काशी के खर्डेकर परिवार में अपनी चचेरी बहिन दुर्गाबाई के विवाह में आये थे तथा 1862 में अपने पिता के काशी में हुए अंतिम संस्कार में भी उपस्थित थे। तात्या के एक वंशज पराग टोपे की पुस्तक ‘तात्या टोपेज आॅपरेशन रेड लोटस’ के अनुसार कोटा और शिवपुरी के बीच चिप्पा बरोड के युद्ध में एक जनवरी, 1859 को तात्या ने वीरगति प्राप्त की।
अनेक ब्रिटिश अधिकारियों के पत्रों में यह लिखा है कि कथित फांसी के बाद भी वे रामसिंह, जीलसिंह, रावसिंह जैसे नामों से घूमते मिले हैं। स्पष्ट है कि इस बारे में अभी बहुत शोध की आवश्यकता है।
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17 अप्रैल/पुण्य-तिथि
मित्रता-प्रेमी गोविन्दराव कुलकर्णी
गोविंदराव कुलकर्णी (अन्ना) 1945 में नागपुर से ही प्रचारक बने थे। प्रारम्भ में उन्हें महाराष्ट्र में ही भंडारा और फिर गोंदिया में जिला प्रचारक का काम दिया गया। 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद लगे प्रतिबंध के समय वे उ0प्र0 के मुगलसराय में प्रचारक थे। प्रतिबंध समाप्ति के बाद उन्हें फिर महाराष्ट्र बुला लिया गया। 1951 से वे विदर्भ में खामगांव, गोंदिया, भंडारा और नागपुर में नगर, जिला और विभाग प्रचारक जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों पर रहे।
गोविंदराव की कद-काठी बहुत प्रभावी थी। सोने में सुहागे की तरह वे खूब बड़ी-बड़ी मूंछें भी रखते थे। जब वे खाकी निकर पहन लेते थे, तो लोग उन्हें प्रायः पुलिस वाला समझते थे। इस विशेषता के कारण उनकी पुलिस वालों से दोस्ती भी बहुत जल्दी हो जाती थी। इसका उन्हें कई बार लाभ भी मिला। यात्रा करते समय कई बार बस और ट्रक वाले उनसे पैसे नहीं लेते थे। मार्ग में होटल वाले भी उन्हें बिना पैसे लिये ही खिला-पिला देते थे।
गोविंदराव चाय नहीं पीते थे। गोंदिया का एक युवा पुलिसकर्मी किसी समय उनका मित्र बन गया था। एक बार वह रास्ते में मिल गया और बहुत आग्रह कर उन्हें एक होटल में ले गया। वस्तुतः उस दिन उसकी सगाई हुई थी। इससे वह बहुत प्रसन्न था और उन्हें चाय-नाश्ता करना चाहता था। गोविंदराव भी उसकी प्रसन्नता में सहभागी हुए और चाय के लिए मना नहीं किया।
संघ के काम में परिचय और मित्रता का बहुत महत्व है। गोविंदराव किसी से भी बहुत जल्दी मित्रता करने में माहिर थे। यात्रा में चलते-चलते वे लोगों से मित्रता कर लेते थे। कार्यालय पर उनसे मिलने सैकड़ों लोग आते थे।
ऐसे लोग प्रायः संघ को बिल्कुल नहीं जानते थे। वे कार्यालय को उनका घर समझते थे; पर धीरे-धीरे गोविंदराव उन्हें भी स्वयंसेवक और कार्यकर्ता बनाकर उनका उपयोग संघ कार्य की वृद्धि में कर लेते थे। वे परिवारों की बजाय कमरा लेकर रहने वाले छात्रों के साथ भोजन करना पसंद करते थे। ऐसे अनेक छात्र आगे चलकर संघ के अच्छे कार्यकर्ता बने।
जब वे कार्यालय पर रहते थे, तो बालक मस्ती में वहां खेलते-कूदते और शोर करते रहते थे। गोविंदराव भी उनके बीच बच्चे बन जाते थे। एक बार उन्हें निर्धन छात्रों के एक छात्रावास के संचालन का काम दिया गया। उसके लिए उन्होंने घर-घर जाकर अनाज, धन तथा अन्य सामग्री एकत्र की; पर व्यवस्था पूरी होते ही वे फिर संघ शाखा के काम में ही वापस आ गये।
गोविंदराव पत्र-व्यवहार बहुत करते थे। उसमें पत्रांक, दिनांक आदि लाल स्याही से बहुत साफ-साफ अंकित रहता था। अतः कई लोग उनके पत्रों को संभाल कर रखते थे। इस माध्यम से भी उन्होंने अनेक लोगों को संघ कार्य की प्रेरणा दी। वे अपने पास आये हर पत्र का बहुत शीघ्र उत्तर देते थे।
उनका संपर्क का दायरा बहुत बड़ा था। सिन्धी समाज के लोग उन्हें ‘भैयाजी’ कहकर आदर देते थे। वे कहते थे कि हर कार्यकर्ता को प्रतिदिन एक नये व्यक्ति से परिचय करना चाहिए। वे स्वयं भी इसका प्रयास करते थे। अपने बड़े भाई और भाभी को वे माता-पिता के समान आदर देते थे।
जीवन के संध्याकाल में उनके रहने की व्यवस्था लाखनी में की गयी; पर बीमार होते हुए भी वे आसपास सम्पर्क करने निकल जाते थे। ऐसे में लोगों को उन्हें ढूंढना पड़ता था। अत्यधिक बीमार होने पर उन्हें नागपुर लाया गया, जहां 17 अप्रैल, 2000 को उनका शरीरांत हुआ।
(संदर्भ : साप्ताहिक विवेक, मुंबई द्वारा प्रकाशित संघ गंगोत्री)
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इस प्रकार के भाव पूण्य संदेश के लेखक एवं भेजने वाले महावीर सिघंल मो 9897230196