कविता
शीर्षक “समान कानून और संविधान
*लेखक विजय सिंह बलिया उत्तरप्रदेश*
संविधान के भाव को समझो,
सबको समान अधिकार मिले!
क्यों रहे कोई लाभ से वंचित,
कर्मों को पुरस्कार मिले!!
धारा 14 कहती है,
सब हों एक समान!
फिर कोई मेधावी बनकर,
क्यों पाता है अपमान?
एक देश में एक विधान हो,
सब धर्मों पर एक समान हो!
विजय! सुदृढ़ भारत की आशा,
पुनः यशस्वी उदीयमान हो!!
हे न्यायालय के मुखिया,
न्यायमूर्ति, अदालत के स्वामी!
इसपर स्वतः संज्ञान नहीं लेते,
क्यों देख नहीं पाते ख़ामी!!
दही हांडी में मानव शृंखला,
पर भी राय सुनाते हैं!
कश्मीर में पत्थरबाजी पर,
पैलेट गन रुकवाते हैं!!
समान कानून संहिता बिल का,
अब संसद से हो जाए शुरुआत!
कार्यपालिका के नीति नियंता,
करें समान कानून पर दृष्टिपात !!
स्वाति नक्षत्र की बूंद भले ही,
गुण, स्वभाव से एक है!
लेकिन इसके नियति के,
होते परिणाम अनेक हैं!!
कदली के पौधे पर गिर कर,
वो कपूर बन जाती है!
सीप में जो गिर जाए तो,
वो मोती बन जाती है!!
जीवन चक्र का उद्गम क्या?
इसका विशेष प्रभाव नहीं!
श्रम, प्रतिभा और समर्पण का,
बस हो जाए सम्मान सही!!
एक राष्ट्र और एक टैक्स का,
आखिर सफ़ल हुआ अभियान!
तो क्यों ना अब मानव जन को,
कानून भी मिले एक समान!!