"गांव, गन्ना और किसान का अंतिम सिपाही: अजित सिंह"
छ: मई | पुण्यतिथि विशेष :
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वीरेश 'तरार'
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भारतीय राजनीति में कुछ चेहरे समय के साथ धुंधले नहीं पड़ते, बल्कि और अधिक स्पष्ट और प्रासंगिक होते जाते हैं। चौधरी चरण सिंह के पुत्र और उनके विचारों के असली उत्तराधिकारी अजीत सिंह ऐसे ही नेता थे, जिन्होंने राजनीति को सत्ता का रास्ता नहीं, बल्कि किसानों की सेवा का माध्यम माना। वे उस दौर में भी किसानों की बात करते रहे जब देश की सियासत शहरीकरण, कॉर्पोरेट और जातीय गणितों में उलझ चुकी थी। वे किसानों के लिए जिए, किसानों के लिए लड़े, और अंत तक इसी सोच में खोए रहे कि भारतीय राजनीति ने गांव और खेत को क्यों भुला दिया।
अजित सिंह ने अमेरिका से कंप्यूटर इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी। वे चाहते तो तकनीकी दुनिया में बड़ी ऊंचाई पा सकते थे, लेकिन उन्होंने गांव की पगडंडियों को अपनी राह बनाया। उन्होंने न सिर्फ अपने पिता की विरासत को संभाला, बल्कि उसमें नए युग के आर्थिक और औद्योगिक आयाम भी जोड़े। जब वे उद्योग मंत्री बने, तो उन्होंने शुगर मिलों को केवल चीनी उत्पादन तक सीमित नहीं रहने दिया, बल्कि ‘शुगर कॉम्प्लेक्स’ की सोच दी। उनका मानना था कि गन्ने से केवल चीनी नहीं, बल्कि सत्तर से अधिक उत्पाद बन सकते हैं। यह सोच केवल एक नीतिगत सुधार नहीं था, बल्कि किसानों की आमदनी बढ़ाने का एक क्रांतिकारी मॉडल था। यदि वह नीति सही ढंग से लागू होती, और सरकारें किसानों तक उसका लाभ पहुँचा पातीं, तो भारत का गन्ना किसान आज पूरी दुनिया में आत्मनिर्भरता का उदाहरण बन सकता था।
किसानों की आय में विविधता लाने के लिए उन्होंने एथेनॉल उत्पादन की भी वकालत की। जब उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में कृषि मंत्रालय मिला, तब उन्होंने इस दिशा में ठोस पहल की। आज देश में एथेनॉल को लेकर जो जागरूकता है और जो लाभ किसानों को मिल रहा है, उसका बीज उन्हीं के हाथों बोया गया था। वे मानते थे कि ऊर्जा का भविष्य खेत से निकलेगा, और किसान केवल अन्नदाता नहीं, बल्कि ऊर्जा-उत्पादक भी हो सकता है।
राजनीति में रहते हुए उन्होंने कभी जाति, धर्म, या संकीर्ण विचारधारा को अपनी सोच में स्थान नहीं दिया। उनका लक्ष्य एक ही था—किसान और गांव। जब वे नागर विमानन मंत्री बने, तब उन्होंने हवाई सफर को आम आदमी तक पहुँचाने के लिए पहल की। यह सोच भी उनके ग्रामीण-केन्द्रित दृष्टिकोण को दर्शाती है। वे मानते थे कि गांव का नौजवान भी हवाई सफर का हकदार है, और देश की तरक्की तभी पूरी होगी जब गांव भी उड़ान भरने लगेगा।
दुर्भाग्य यह रहा कि जिस किसान के लिए वे जीवन भर संघर्ष करते रहे, उसी किसान ने उन्हें वह राजनीतिक ताकत नहीं दी जिसके वे हक़दार थे। दो बार चुनाव में हार का सामना करना पड़ा, और यह टीस उन्हें अंत तक कचोटती रही। उनकी पीड़ा यह नहीं थी कि वे हार गए, बल्कि यह थी कि किसान एकजुट नहीं हो पा रहा है, अपने पक्ष के लिए संगठित होकर राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं कर पा रहा है। जब उनका बेटा जयंत सिंह फिर से राजनीति में स्थापित हुआ और किसान आंदोलन की बदौलत जनसमर्थन मिला, तो उम्मीद जगी कि शायद अब चौधरी साहब की सोच आगे बढ़ेगी। लेकिन जब जयंत सिंह ने भारतीय जनता पार्टी के साथ समझौता किया, तो कई किसानों के मन में यह खटक गया कि क्या वह मार्ग अब भी वैसा ही शुद्ध और निःस्वार्थ है, जैसा चौधरी अजित सिंह का था।
किसान आंदोलन के समय चौधरी अजित सिंह ने खुलकर किसानों का साथ दिया। जब तीन कृषि कानूनों को लेकर देश में आंदोलन हुआ, तो वे भले बीमार थे, लेकिन विचारों में पूरी ताकत से किसानों के साथ खड़े थे। उनकी उपस्थिति और नैतिक समर्थन ने उस आंदोलन को एक गहरी ऐतिहासिकता दी, जिसने आखिरकार सरकार को झुकने पर मजबूर किया। उनके निधन के बाद किसानों ने जिस प्रकार उन्हें श्रद्धांजलि दी, वह दिखाता है कि वे उनके दिलों में आज भी जिंदा हैं।
आज जब राजनीति किसानों के मुद्दों से मुंह मोड़ चुकी है, और गांव की समस्याएं केवल घोषणापत्रों तक सीमित रह गई हैं, तब अजित सिंह की अनुपस्थिति खलती है। वे आखिरी ऐसे नेता थे जिन्होंने न तो कॉर्पोरेट के आगे झुकना गंवारा किया , न कभी जातिवादी राजनीति की डोर थामी, न मंदिर-मस्जिद के शोर में उलझे। वे केवल खेत, किसान, गन्ना, और गांव की बात करते रहे—और इसी में उन्होंने अपनी दुनिया रच ली थी।
6 मई को जब उनकी पुण्यतिथि आती है, तो यह दिन केवल एक श्रद्धांजलि का अवसर नहीं, बल्कि आत्ममंथन का क्षण है। क्या भारतीय राजनीति फिर कभी ऐसा नेता देख पाएगी, जो केवल और केवल किसान के लिए जिए ,लडे और मिट जाए ? चौधरी अजित सिंह की स्मृति एक प्रेरणा है, एक प्रश्न भी, और एक खालीपन भी—जिसे अब शायद कोई नहीं भर सकता।
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