चित्र कथा के शिल्पी अनंत पै के जन्म दिन पर विशेष लेख को प्रकाशित कर रहे हैं महावीर संगल जी प्रसारित आंखों देखे अपराध समाचार पत्र पर

17 सितम्बर/जन्म-दिवस अमर चित्रकथा के शिल्पी : अनंत पै कहानी पढ़ना किसे अच्छा नहीं लगता; शायद ही कोई बच्चा हो, जिसने अपनी दादी-नानी या मां से कहानी न सुनी हो। बड़े होने पर अपने विद्यालय की पुस्तकों के साथ ही पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाली कहानी और कविताएं भी बच्चे बड़ी रुचि से पढ़ते हैं। इसके अतिरिक्त उन्हें चित्र देखने में भी बहुत मजा आता है। इसमें से ही साहित्य की चित्रकथा विधा का जन्म हुआ। भारतीय इतिहास तथा पौराणिक पात्रों के आधार पर चित्रकथा बनाने वाले अनंत पै का जन्म 17 सितम्बर, 1929 को करकाला (कर्नाटक) में श्री वैंकटार्य एवं सुशीला पै के घर में हुआ था। दो वर्ष के होते-होते उनके माता-पिता का देहांत हो गया। अनंत 12 वर्ष की अवस्था में मुंबई आ गये और माहिम स्थित ओरियेंट स्कूल में पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय से भौतिकी, रसायन और रसायन तकनीक में एक साथ दो उपाधियां प्राप्त की। चित्र और छपाई कला में रुचि होने के कारण अनंत पै ने 1954 में ‘मानव’ नामक बाल पत्रिका निकाली; पर उसमें सफल न होने पर वे ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ में काम करने लगे। उन दिनों उसमें बेताल और फैंटम जैसे विदेशी पात्रों पर आधारित ‘इंद्रजाल कामिक्स’ नामक चित्रकथा छपती थी। 1967 में अनंत पै ने दूरदर्शन के एक प्रश्नोत्तर कार्यक्रम में देखा कि बच्चे विदेशी नायकों के बारे में तो जानते हैं; पर श्रीराम और श्रीकृष्ण के बारे में नहीं। इससे उनके मन को चोट लगी और उन्होंने टाइम्स ऑफ़ इंडिया से त्यागपत्र दे दिया। अब वे स्वतन्त्र रूप से इस दिशा में काम करना चाहते थे; पर उनके पास इतना धन नहीं था। अनेक प्रकाशकों ने उनके विचारों को ठुकरा दिया; पर ‘इंडिया बुक हाउस’ के श्री मीरचंदानी के सहयोग से ‘अमर चित्रकथा’ प्रकाशित होने लगी। बच्चों के साथ ही उनके अभिभावक और अध्यापकों ने भी इनका भरपूर स्वागत किया। भारत के महापुरुष, वीर महिलाएं, पौराणिक पात्र, प्रख्यात वैज्ञानिक, स्वाधीनता सेनानी आदि विषयों पर उन्होंने लगभग 450 पुस्तकें बनाईं। इनकी देश की 20 भाषाओं में दस करोड़ प्रतियां बिकीं। अब वे बच्चों में ‘अनंत चाचा’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये। 1969 में उन्होंने ‘रंग रेखा फीचर्स’ तथा 1980 में अंग्रेजी बालपत्रिका ‘टिंकल’ प्रारम्भ की। इसके पहले अंक की 40 हजार प्रतियां बिकीं। इसके कार्टून पात्र कपीश, रामू और शामू, सुपंडी, शिकारी शंभू और तंत्री दि मंत्री आदि बच्चों में खूब लोकप्रिय हुए। इसके ‘अनु क्लब’ द्वारा उन्होंने बच्चों में विज्ञान को लोकप्रिय बनाया। उनके पास हर मास चार से पांच हजार पाठकों के पत्र आते थे। अनंत चाचा की सफलता का कारण उनकी विशिष्ट शैली थी। वे काम करते समय स्वयं बच्चों की मानसिकता में डूब जाते थे। उन्होंने अनेक साथी बनाये, जिनमें श्री राम वेरकर प्रमुख हैं। उन्होंने हिन्दी तथा अंग्रेजी में बच्चों के लिए सफलता के रहस्य, व्यक्तित्व विकास, स्मृति शास्त्र आदि पुस्तकें तथा वेदों की जानकारी देने के लिए ‘एकम् सत्’ नामक वीडियो फिल्म भी बनाई। कहानी सुनाते हुए उनके कई आडियो टेप भी लोकप्रिय हुए। श्री अनंत पै सदा नये विचारों पर काम करते रहते थे। वृद्ध होने पर भी वे भारत के विभिन्न तीर्थों तथा भारतीय इतिहास की 40 महत्वपूर्ण घटनाओं पर आधारित एक बड़े प्रकल्प पर काम कर रहे थे; पर सीढ़ियों से गिर जाने के कारण उनकी कूल्हे ही हड्डी टूट गयी। अतः उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। वहीं 24 फरवरी, 2011 को हुए भीषण हृदयाघात से बच्चों के प्रिय अनंत चाचा सचमुच अनंत की यात्रा पर चले गये। दूरदर्शन और अंतरजाल के वर्तमान दौर में भी उनकी पुस्तकों की लगभग तीन लाख प्रतियां प्रतिवर्ष बिकती हैं। ................................................... 17 सितम्बर/जन्म-दिवस अक्षर पुरुष : बापू वाकणकर दुनिया भर में लिपि विशेषज्ञ के नाते प्रसिद्ध श्री लक्ष्मण श्रीधर वाकणकर लोगों में बापू के नाम से जाने जाते थे। उनके पूर्वज बाजीराव पेशवा के समय मध्य प्रदेश के धार नगर में बस गये थे। उनके अभियन्ता पिता जब गुना में कार्यरत थे, उन दिनों 17 सितम्बर, 1912 को बापू का जन्म हुआ था। ग्वालियर, नीमच व धार में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर बापू इंदौर आ गये। यहां उनका परिचय कई क्रांतिकारियों से हुआ। वे जिस अखाड़े में जाते थे, उसमें अगस्त 1929 में संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार आये थे। यहां पर ही मध्य भारत की पहली शाखा लगी, जिसमें बापू भी शामिल हुए थे। इस प्रकार वे प्रांत की पहली शाखा के पहले दिन के स्वयंसेवक हो गये। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा क्रांतिकारियों से बढ़ते सम्बन्धों से चिंतित पिताजी ने उन्हें अभियन्ता की पढ़ाई करने मुंबई भेज दिया। वहां उनका आवास बाबाराव सावरकर के घर के पास था। इससे उनके मन पर देशभक्ति के संस्कार और दृढ़ हो गये। पुणे में लोकमान्य तिलक द्वारा स्थापित केसरी समाचार पत्र के कार्यालय में पत्रकारिता का अध्ययन करते समय 1935 में उन्होंने संघ का द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण लिया। निशानेबाजी एवं परेड में वे बहुत तज्ञ थे। इसके बाद उज्जैन आकर उन्होंने दशहरा मैदान में शाखा प्रारम्भ की। बापू वाकणकर ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में भी शिक्षा पाई थी। वहां उनके गुरु प्रो. गोडबोले तथा श्री गोलवलकर ने उनके मन में स्वदेशी का भाव भरा। इससे प्रेरित होकर उन्होंने ‘आशा’ नामक उद्योग स्थापित कर सुगन्धित द्रव्य तथा दैनिक उपयोग की कई चीजें बनाईं। ये उत्पाद इतने अच्छे थे कि द्वितीय विश्व युद्ध के समय विदेशी भी उन्हें खरीदने को लालायित रहते थे। यह काम एक युवा उद्यमी को देकर बापू ने सिरेमिक्स के छोटे बर्तनों पर छपाई की सुगम तकनीक विकसित की। फिर इसे भी एक सहयोगी को देकर भारतीय लिपियों को संगणक (कम्प्यूटर) पर लाने के शोध में लग गये। उनकी प्रतिभा देखकर केन्द्र शासन ने उन्हें ‘लिपि सुधार समिति’ का सदस्य बना दिया। फिर भूटान, सिक्किम और श्रीलंका सरकार के आमन्त्रण पर उन्होंने वहां की स्थानीय लिपियों को भी सफलतापूर्वक कम्प्यूटरीकृत किया। इसके बाद संगणक निर्माण में अग्रणी जर्मनी तथा डेनमार्क ने उन्हें अपने यहां बुलाया। उनके शोध की उपयोगिता देखकर बड़ोदरा के उद्योगपति श्री अमीन ने उन्हें आवश्यक आर्थिक सहायता देकर पुणे में अंतरराष्ट्रीय लिपि के क्षेत्र में शोध को कहा। इस प्रकार ‘इंटरनेशनल टायपोग्राफी इंस्टीट्यूट’ की स्थापना हुई। यहां ‘अक्षर’ नामक प्रकाशन भी प्रारम्भ हुआ। बापू के प्रयास से भारतीय लिपि के क्षेत्र में एक नये युग का सूत्रपात हुआ। विश्व की अनेक भाषा एवं लिपियों के ज्ञाता होने से लोग उन्हें ‘अक्षरपुरुष’ और ‘पुराणपुरुष’ कहने लगे। पद्मश्री से अलंकृत उनके छोटे भाई डा. विष्णु श्रीधर वाकणकर अंतरराष्ट्रीय ख्याति के पुरातत्ववेत्ता थे। उन्होंने उज्जैन में इतिहास संबंधी शोध के लिए ‘वाकणकर शोध संस्थान’ स्थापित किया था। 1988 में उनके असमय निधन के बाद बापू उज्जैन में रहकर उनके अधूरे शोध को पूरा करने लगे। उन्होंने सरस्वती नदी के लुप्त यात्रा पथ को खोजने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। बापू ने गणेश जी की स्तुति में रचित ‘अथर्वशीर्ष’ नामक स्तवन का अध्ययन कर यह बताया कि आद्य अक्षर ‘ओम्’ में से लिपि का उदय कैसे हुआ है ? आज संगणक और उसमें भारतीय भाषा व लिपियों का महत्व बहुत बढ़ गया है। इसे पर्याप्त समय पूर्व पहचान कर, इसके शोध में जीवन समर्पित करने वाले श्री वाकणकर का 15 जनवरी, 1999 को उज्जैन में ही निधन हुआ। (संदर्भ : मध्यभारत की संघगाथा/पांचजन्य 7.2.1999) .................................इस प्रकार के भाव पूण्य संदेश के लेखक एवं भेजने वाले महावीर सिघंल मो 9897230196