संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर 14 अक्टूबर 1956 विजयदशमी के दिन 56 हजार समर्थकों के साथ बुद्धम शरणम गच्छामि बुद्ध की शरण हो गए महावीर संगल जी

14 अक्तूबर/इतिहास-स्मृति बुद्धम् शरणम् गच्छामि हिन्दू धर्म विश्व का सर्वश्रेष्ठ धर्म है। जैसे गंगाजल स्वयं को शुद्ध करता चलता है, इसी प्रकार इसमें देश, काल और परिस्थिति के अनुसार स्वयं को बदलने की प्रक्रिया चलती रहती है। यद्यपि विदेशी और विधर्मी शासकों के काल में इसमें समय-समय पर अनेक कुरीतियाँ भी आयीं, जिससे इसकी हानि हुई। इनमें से ही एक भयानक कुरीति है जातिभेद। हमारे पूर्वजों ने किसी काल में धर्म की रक्षार्थ कार्य के अनुसार जातियाँ बनाई थीं; पर आगे चलकर वह जन्म के अनुसार मान ली गयीं। इतना ही नहीं, तो उसमें से कई को नीच और अछूत माना गया। भले ही उसमें जन्मे व्यक्ति ने कितना ही ऊँचा स्थान क्यों न पा लिया हो। ऐसे ही एक महामानव थे बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर, जिन्होंने विदेश में बैरिस्टर की उच्च शिक्षा पायी थी। स्वतन्त्रता के बाद भारत के प्रथम विधि मन्त्री के नाते संविधान निर्माण में उनकी भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही; पर महाराष्ट्र की महार जाति में जन्म लेने के कारण उन्हें हिन्दू समाज के तथाकथित उच्च वर्ग के लोग सदा हीन दृष्टि से देखते थे। इसी से दुखी होकर उन्होंने विजयादशमी (14 अक्तूबर, 1956) को अपने 56,000 समर्थकों के साथ नागपुर में बौद्ध धर्म ग्रहण किया। बाबा साहब के मन पर अपने पिता श्री रामजी सकपाल के धार्मिक विचारों का बहुत प्रभाव था। इसलिए दीक्षा से पूर्व सबने दो मिनट मौन खड़े होकर उन्हें श्रद्धांजलि दी। फिर बाबा साहब और उनकी पत्नी डा. सविता अम्बेडकर (माई साहब) ने मत परिवर्तन किया। हिन्दू धर्म से अत्यधिक प्रेम होने के कारण जब उन्होंने कहा कि आज से मैं इसे छोड़ रहा हूँ, तो उनकी आँखों में आंसू आ गये। उन्होंने वयोवृद्ध भन्ते चन्द्रमणि से बौद्ध मत का अनुग्रह पाली भाषा में लिया। इसके बाद महाबोधि सोयायटी ऑफ इंडिया के सचिव श्री वली सिन्हा ने उन दोनों को भगवान बुद्ध की धर्मचक्र प्रवर्तक की मुद्रा भेंट की, जो सारनाथ की मूर्त्ति की प्रतिकृति थी। इसके बाद बाबा साहब ने जनता से कहा कि जो भी बौद्ध धर्म ग्रहण करना चाहें, वे हाथ जोड़कर खड़े हो जायें। जो लोग खड़े हुए, बाबा साहब ने उन्हें 22 शपथ दिलाईं, जो उन्होंने स्वयं तैयार की थीं। बाबा साहब को आशा थी कि केवल हिन्दू ही उनके साथ आयेंगेे; पर कुछ मुसलमान और ईसाई भी बौद्ध बने। इस पर उन्होंने कहा कि हमें अपनी प्रतिज्ञाओं को कुछ बदलना होगा, क्योंकि उनमें हिन्दू देवी-देवताओं और अवतारों को न मानने की ही बात कही गयी थी। यदि मुस्लिम और ईसाई बौद्ध बनना चाहते हैं, तो उन्हें मोहम्मद और ईसा को अवतार मानने की धारणा छोड़नी होगी। यद्यपि यह काम नहीं हो पाया, क्योंकि डेढ़ माह बाद छह दिसम्बर, 1956 को बाबा साहब का देहान्त हो गया। डा. अम्बेडकर ने जब धर्म परिवर्तन की बात कही, तो उनसे अनेक धार्मिक नेताओं ने सम्पर्क किया। निजाम हैदराबाद ने पत्र लिखकर उन्हें प्रचुर धन सम्पदा का प्रलोभन तथा मुसलमान बनने वालों की शैक्षिक व आर्थिक आवश्यकताओं की यथासम्भव पूर्ति की बात कही। ईसाई पादरियों ने भी ऐसे ही आश्वासन दिये; पर डा. अम्बेडकर का स्पष्ट विचार था कि इस्लाम और ईसाई विदेशी मजहब हैं, इसलिए उसमें जाने से देशभक्तों का मनोबल कम होगा। ऐसे में उन्होंने भारत की मिट्टी से जन्मे बौद्ध मत को अपने अनुकूल पाया, जिसमें जातिभेद नहीं है। ............................................. 14 अक्तूबर/जन्म-दिवस नर्मदा प्रेमी अनिल माधव दवे बहुमुखी प्रतिभा के धनी अनिल माधव दवे का जन्म 14 अक्तूबर, 1956 (विजयादशमी) को बड़नगर (जिला उज्जैन, मध्य प्रदेश) में श्री माधव दवे एवं श्रीमती पुष्पादेवी के घर में हुआ था। यद्यपि सरकारी कागजों में छह जुलाई, 1956 लिखा है। उन पर अपने दादा श्री बद्रीलाल दवे (दा साहब) का विशेष प्रभाव था। दा साहब कांग्रेस, जनसंघ और फिर संघ में सक्रिय रहे। वे मध्यभारत प्रांत के संघचालक तथा इससे पूर्व म.प्र. में जनसंघ के पहले अध्यक्ष भी रहे थे। संघ और जनसंघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता उनके घर आते रहते थे। अतः बचपन से ही अनिलजी को ऐसे महान लोगों का प्रेम और आशीर्वाद मिला। श्री माधव दवे रेलवे विभाग में थे। अतः अनिलजी की प्रारम्भिक शिक्षा पिताजी के साथ गुजरात के विभिन्न भागों में हुई। वे एन.सी.सी. में भी रुचि लेते थे। 1964 में वे स्वयंसेवक बने। इंदौर के गुजराती काॅलेज से ग्राम्य विकास एवं प्रबंधन में एम.काॅम करते हुए वे वहां छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे। 1974 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए आंदोलन में भी वे सक्रिय थे। कुछ समय नौकरी व उद्योग धंधों में हाथ आजमाने के बाद 1989 में वे संघ के प्रचारक बने और म.प्र. में जिला और विभाग प्रचारक के नाते काम किया। अनिलजी काम के योजना पक्ष पर बहुत ध्यान देते थे। उनका यह गुण संघ के वरिष्ठ जनों के ध्यान में आया। उन दिनों म.प्र. में कांग्रेस सरकार थी। मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह संघ के घोर विरोधी थे। वहां भा.ज.पा. की सरकार बने, इसके लिए एक योग्य एवं जुझारू नेता की जरूरत थी। सबका ध्यान साध्वी उमा भारती पर गया। उन्होंने जनसंपर्क शुरू कर दिया; पर चुनाव में योजना पक्ष का भी बहुत महत्व होता है। अतः अनिलजी को उनके साथ लगा दिया गया। इस प्रकार 2004 में कांग्रेस का दस साल का शासन धराशायी हो गया। पर कुछ आंतरिक झंझटों के चलते उमाजी को पद छोड़ना पड़ा। अतः अनिलजी मुख्यतः केन्द्र की राजनीति में सक्रिय हो गये। यद्यपि उपाध्यक्ष के नाते म.प्र. में भी उनकी सक्रिय भूमिका बनी रही। उन्होंने गांव की चैपालों में संपर्क कर नर्मदा परिक्रमा, नर्मदा समग्र, नर्मदा महोत्सव जैसे प्रकल्प शुरू किये। भोपाल में उनके निवास का नाम ‘नदी का घर’ था। 2016 में केन्द्र में उन्हें पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय का काम मिला। इससे पहले भी वे पर्यावरण संबंधी कई संसदीय समितियों के सदस्य रहे। वे विदेशी बीज, खाद, कीटनाशक आदि के बदले जैविक खेती तथा पर्यावरण संरक्षण में भारतीय परम्पराओं के समर्थक थे। वे बड़े दानवाकार बांधों का भी विरोध करते थे। अनिलजी शौकिया पायलट तो थे ही, एक मौलिक लेखक और चिंतक भी थे। कुछ निबंध, कविताएं तथा सृजन से विसर्जन तक, नर्मदा समग्र, शताब्दी के पांच काले पन्ने, संभल के रहना अपने घर में छिपे हुए गद्दारों से, महानायक चंद्रशेखर आजाद, रोटी और कमल की कहानी, समग्र ग्राम विकास, शिवाजी एवं सुराज, यस आई कैन: सो कैन वी उनकी लिखित पुस्तकें हैं। कोपेनहेगन के विश्व पर्यावरण सम्मेलन से लौटकर उन्होंने बियांड कोपेनेहेगन भी लिखी। नवरात्र में वे प्रतिवर्ष उपवास एवं मौन रखते थे। भीषण हृदयरोग होने पर वे चुपचाप मंुबई गये और फिर बड़े आॅपरेशन के बाद ही सबको बताया। यद्यपि इसके बाद वे काम में लग गये; पर रोग ने पीछा नहीं छोड़ा। वे म.प्र. से दो बार राज्यसभा के सदस्य रहे; पर राजनीति में होते हुए भी वे मन से प्रचारक ही थे। उन्होंने 2012 में ही अपनी वसीयत में लिख दिया था कि उनकी स्मृति में कोई स्मारक बनाने की बजाय वृक्ष, नदी और तालाबों का संरक्षण करें। 18 मई, 2017 को दिल्ली में हृदयाघात से हुए देहांत के बाद उनकी इच्छानुसार उनका अंतिम संस्कार नर्मदा और तवी के संगम पर बांद्राभान में किया गया। (संदर्भ : सृजन से विसर्जन तक, शिवाजी एवं सुराज, पांचजन्य 28.5.17 तथा अन्य अखबार) ------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------- 14 अक्तूबर/पुण्य-तिथि हठयोगी स्वतन्त्रता सेनानी प्रो. जयकृष्ण प्रभुदास भन्साली 1897 में गुजरात के एक सम्पन्न परिवार में जन्मे प्रोफेसर जयकृष्ण प्रभुदास भन्साली उन लोगों में से थे, जो अपने संकल्प की पूर्ति के लिए शरीर को कैसा भी कष्ट देने को तैयार रहते थे। मुम्बई विश्वविद्यालय से एम.ए. कर वे वहीं प्राध्यापक हो गये। 1920 में गांधी जी से सम्पर्क के बाद वे साबरमती आश्रम में ही रहने लगे। गांधी जी के प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्र ‘हरिजन’ के भी वे सम्पादक रहे, जो आगे चलकर ‘यंग इंडिया’ में बदल गया। गांधी जी से अत्यधिक प्रभावित होने के बाद भी वे आश्रम की गतिविधियों से सन्तुष्ट नहीं थे। इसलिए उन्होंने संन्यास लेने का मन बनाया। इसके लिए स्वयं को तैयार करने के लिए उन्होंने 55 दिन का उपवास किया; पर इससे उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया और उनकी स्मृति लुप्त हो गयी। ठीक होने पर गांधी जी की अनुमति से वे 1925 में केवल एक वस्त्र लेकर नंगे पैर हिमालय की यात्रा पर निकल गये। इस दौरान उन्होंने केवल नीम की पत्तियाँ खायीं। उन्होंने कुछ दिन मौन रखा; पर एक बार मौन टूटने पर उन्होंने पीतल के तार से मुँह सिलवा लिया। अब वे केवल आटे को पानी में घोलकर पीने लगे। उत्तर भारत की यात्रा कर वे 1932 में सेवाग्राम लौट आये। 1942 में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के समय कई स्थानों पर अंग्रेजों ने भारी दमन किया। इनमें महाराष्ट्र का आष्टी चिमूर भी था। 16 अगस्त को क्रान्तिकारियों ने थाने पर हमलाकर छह पुलिस वालों को मार दिया। अगले दिन आयी कुर्ग रेजिमेण्ट ने दस लोगों को मौत के घाट उतार दिया। पाँच सैनिक भी मारे गये। 16 से 19 अगस्त तक चिमूर स्वतन्त्र रहा। इस बीच 1,000 सैनिकों ने चिमूर को घेर लिया। 19 से 21 अगस्त तक उन्होंने दमन का जो नंगा नाच वहाँ दिखाया, वह अवर्णनीय है। सैनिकों को लूटपाट से लेकर हर तरह का कुकर्म करने की पूरी छूट थी। प्रोफेसर भन्साली ने जब यह सुना, तो उन्होंने वायसराय की कौंसिल के सदस्य श्री एम.एस.अणे से त्यागपत्र देने को कहा; पर वे तैयार नहीं हुए। इस पर प्रोफेसर भन्साली दिल्ली में उनके घर के बाहर उपवास पर बैठ गये। उन्हें गिरफ्तार कर सेवाग्राम लाया गया, तो वे चिमूर जाकर उपवास करने लगे। पुलिस उन्हें पकड़कर वर्धा लायी; पर वे बिना कुछ खाये पिये पैदल ही चिमूर की ओर चल दिये। इस प्रकार उन्होंने 63 दिन का उपवास किया, जो 12 जनवरी, 1943 को समाप्त हुआ। अन्ततः सेंट्रल प्रोविन्स के मुख्यमन्त्री डा. खरे तथा श्री अणे को चिमूर जाना पड़ा। आष्टी चिमूर कांड में सात क्रान्तिकारियों को फाँसी तथा 27 को आजीवन कारावास हुआ। स्वतन्त्रता मिलने के बाद भी प्रोफेसर भन्साली चैन से नहीं बैठे। हैदराबाद में रजाकारों की गतिविधियों के विरुद्ध उन्होंने 19 दिन का उपवास किया। 1950 में वे नागपुर के पास टिकली गाँव में बस गये और ग्रामीणों की सेवा करने लगे। राजनीति में उनकी कोई रुचि नहीं थी। 1958 में विश्व की बड़ी शक्तियों को अणु विस्फोट से विरत करने के लिए उन्होंने 66 दिन का उपवास किया। नक्सली हिंसा के विरुद्ध आन्ध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र में भी उन्होंने यात्रा की। शरीर दमन के प्रति अत्यधिक आग्रही प्रोफेसर भन्साली ने 14 अक्तूबर, 1982 को नागपुर में अपना शरीर त्याग दिया। इनकी स्मृति को स्थायी करने के लिए मेरठ (उत्तर प्रदेश) में एक बड़े मैदान का नाम ‘भन्साली मैदान’ रखा गया है। .............................. 14 अक्तूबर/पुण्य-तिथि चिर युवा दत्ता जी डिडोलकर दत्ता जी डिडोलकर संघ परिवार की अनेक संस्थाओं के संस्थापक तथा आधार स्तम्भ थे। उन्होंने काफी समय तक केरल तथा तमिलनाडु में प्रचारक के नाते प्रत्यक्ष शाखा विस्तार का कार्य किया। उस जीवन से वापस आकर भी वे घर-गृहस्थी के बंधन में नहीं फंसे और जीवन भर संगठन के जिस कार्य में उन्हें लगाया गया, पूर्ण मनोयोग से उसे करते रहे। 'अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद' के कार्य के तो वे जीवन भर पर्यायवाची ही रहेे। सरसंघचालक श्री गुरुजी ने आदर्श महापुरुष की चर्चा करते हुए एक बार कहा था कि वह कभी परिस्थिति का गुलाम नहीं बनता। उसके सामने घुटने नहीं टेकता, अपितु उससे संघर्ष कर अपने लिए निर्धारित कार्य को सिद्ध करता है। वह अशुभ शक्तियों को कभी अपनी शुभ शक्तियों पर हावी नहीं होने देता। इस कसौटी पर देखें, तो दत्ता जी सदा खरे उतरते हैं। दत्ता जी विद्यार्थी परिषद के संस्थापक सदस्य तो थे ही, लम्बे समय तक उसके अध्यक्ष भी रहे। उस समय विद्यार्थी परिषद को एक प्रभावी अध्यक्ष की आवश्यकता थी। उन्होंने अपने मजबूत इरादों तथा कर्तत्व शक्ति के बलपर परिषद के कार्य को देशव्यापी बनाया। दक्षिण के राज्यों को इस नाते कुछ कठिन माना जाता था; पर दत्ता जी ने वहां भी विजय प्राप्त की। उन्होंने साम्यवादियों के गढ़ केरल की राजधानी त्रिवेन्द्रम में परिषद का राष्ट्रीय अधिवेशन करने का निर्णय लिया। उनके प्रयास से वह अधिवेशन अत्यन्त सफल हुआ। उनका मत था कि विद्यार्थी परिषद किसी राजनीतिक दल की गुलामी के लिए नहीं बना है। बल्कि एक समय ऐसा आएगा, जब सब राजनीतिक दल ईर्ष्या करेंगे कि विद्यार्थी परिषद जैसे कार्यकर्ता हमारे पास क्यों नहीं हैं ? उनके समय के परिषद के कार्यकर्ता आज राजनीति में जो प्रभावी भूमिका निभा रहे हैं, उससे वह बात शत-प्रतिशत सत्य हुई दिखाई देती है। दत्ता जी की अवस्था चाहे जो हो; पर वे मन से चिरयुवा थे। अतः वे सदा विद्यार्थियों और युवकों के बीच ही रहना चाहते थे। प्रचारक जीवन से निवृत्त होकर उन्होंने 'जयंत ट्यूटोरियल' की स्थापना की। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने अनेक छात्रों की सहायता की। इसके पाठ्यक्रम में पढ़ाई के सामान्य विषय तो रहते ही थे; पर कुछ अन्य विषयों के माध्यम से वे छात्र के अन्तर्निहित गुणों को उभारने का प्रयास करते थे। केवल पढ़ाना ही नहीं, तो वे अपने छात्रों की हर प्रकार की सहायता करने को सदा तत्पर रहते थे। जब कन्याकुमारी में विवेकानंद शिला स्मारक बनाने का निश्चय हुआ, तो दत्ता जी उस समिति के संस्थापक तथा फिर कुछ समय तक महामंत्री भी रहे। 1989 में जब संघ संस्थापक डा. हेडगेवार की जन्म शताब्दी मनाई गयी, तो उसके क्रियान्वयन के लिए बनी समिति के भी वे केन्द्रीय सहसचिव थे। वे विश्व हिन्दू परिषद के पश्चिमांचल क्षेत्र के संगठन मंत्री भी रहे। छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्यारोहण की 300 वीं जयन्ती उत्साहपूर्वक मनाई गयी। उस समारोह समिति के भी वे सचिव थे। नागपुर में नागपुर विद्यापीठ की एक विशेष पहचान है। वे उसकी कार्यकारिणी के सदस्य थे। इतना सब होने पर भी उनके मन में प्रसिद्धि की चाह नहीं थी। उन्होंने जो धन कमाया था, उसका कुछ भाग अपने निजी उपयोग के लिए रखकर शेष सब बिना चर्चा किये संघ तथा उसकी संस्थाओं को दे दिया। सदा हंसते रहकर शेष सब को भी हंसाने वाले चिर युवा, सैकड़ों युवकों तथा कार्यकर्ताओं के आदर्श दत्ता जी डिडोलकर का 14 अक्तूबर, 1990 को देहांत हुआ। (संदर्भ : राष्ट्रसाधना भाग 2) ..................................... 14 अक्तूबर/बलिदान-दिवस आपातकाल के प्रखर प्रतिरोधी प्रभाकर शर्मा भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में आपातकाल का विशेष स्थान है। इंदिरा गांधी ने अपनी तानाशाही स्थापित करने के लिए संविधान के इस प्रावधान का दुरुपयोग किया, जिससे 26 जून, 1975 को देश एक कालरात्रि में घिर गया। इसके साथ ही इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा अन्य अनेक संस्थाओं पर प्रतिबन्ध लगाकर उनके हजारों कार्यकर्ताओं को झूठे आरोप में जेल में ठूंस दिया। सारे देश में भय व्याप्त था। लोग बोलने से डरते थे। सेंसर के कारण समाचार पत्र भी सत्य नहीं छाप सकते थे। जेल में लोगों का उत्पीड़न हो रहा था। ऐसे में 85 वर्षीय वयोवृद्ध सर्वोदयी कार्यकर्ता श्री प्रभाकर शर्मा ने एक ऐसा कदम उठाया, जिसने वे इतिहास में अमर हो गये। यद्यपि सरकारी साधु विनोबा भावे ने आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व’ कहा था। श्री प्रभाकर शर्मा ने गांधी जी के आह्नान पर 1935 में ग्राम सेवा का व्रत स्वीकार किया था। तब से वे इसी काम में लगे थे। उनकी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं थी; पर जब उन्होंने निर्दोष लोगों का उत्पीड़न होते देखा, तो उनकी आत्मा चीत्कार उठी और उन्होंने इसका विरोध करने का निश्चय किया। श्री प्रभाकर शर्मा ने 14 अक्तूबर, 1976 को सुरगांव (वर्धा, महाराष्ट्र) में अपने हाथों से अपनी चिता बनाई। शरीर पर चंदन का लेपकर उस पर खूब घी डाला, जिससे आग पूरी तरह भभक कर जल सके। इसके बाद वे स्वयं ही चिता पर बैठ गये। उन्होंने आसपास उपस्थित अपने सहयोगियों और मित्रों को हाथ उठाकर निर्भय रहने का संदेश दिया और चिता में आग लगा ली। कुछ ही देर में चिता और उनका शरीर धू-धू कर जलने लगा; पर उनके मुंह से एक बार भी आह या कराह नहीं निकली। इस प्रकार लोकतंत्र और वाणी के स्वातं×य की रक्षा हेतु एक स्वाधीनता सेनानी ने बलिदान दे दिया। चिता पर चढ़ने से पूर्व उन्होंने एक खुले पत्र में इंदिरा गांधी और उनके काले कानूनों को खूब लताड़ा है। यह पत्र आपातकाल के इतिहास में बहुत चर्चित हुआ। वे लिखते हैं - ईश्वर और मानवता को भूली हुई, पशुबल से सम्पन्न सरकार ने लोगों की स्वतंत्रता छीनकर सत्य पर प्रहार किया है। मुगलों के काल में भी ऐसे अत्याचार होते थे; पर इस बार तो वह सरकार ऐसा कर रही है, जिसने गांधी जी के नेतृत्व में अहिंसा की शिक्षा ली थी। उन्होंने सेंसर की आलोचना करते हुए लिखा - इस प्रकार के अत्याचारों के समाचार भी प्रकाशित नहीं हो सकते। अंग्रेजों के समय में मुकदमा और सजा होती थी। समाचार पत्रों में छपने के कारण बाहर के लोगों को इसका पता लगता था। इससे शेष लोग भी उत्साहित होते थे। जनता में नैतिक जागृति आती थी; पर आपके काले कानूनों ने इसे भी असंभव कर दिया। मीसा के बारे में वे लिखते हैं - यह कानून नौकरशाही को राक्षस तथा जनता को कायर बनाता है। न्यायाधीश भी आपके पिट्ठू बने हैं। जो इन कानूनों का विरोध करेगा, उसे न जाने कब तक जेल में रहना पड़ेगा। जेल जाना भी अन्याय सहना ही है। अतः मैं आपकी जेल में भी नहीं जाऊंगा। आपके राज्य में मनुष्य के नाते जीवित रहना कठिन है। अतः मैं जीवित रहना नहीं चाहता। मैंने इसके विरोध में अपनी बलि देने का निश्चय किया है। उनके आत्मदाह के बाद भी इस पत्र को सार्वजनिक करने का साहस शासन में नहीं हुआ। संघ के स्वयंसेवक अनेक गुप्त पत्रक उन दिनों निकालते थे। उनके माध्यम से ही यह घटना लोगों का पता लगी। (संदर्भ : आह्वान, लोकहित प्रकाशन) इस प्रकार के भाव पूण्य संदेश के लेखक एवं भेजने वाले महावीर सिघंल मो 9897230196


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