21 दिसंबर एक ऐसे महान क्रांतिकारी का बलिदान दिवस है जो अपने ही परिवार की उपेक्षा का भी रहे शिकार महावीर संगल


21 दिसम्बर/बलिदान-दिवस


पंडित गेंदालाल दीक्षित, जिन्हें अपनों ने ही ठुकराया


प्रायः ऐसा कहा जाता है कि मुसीबत में अपनी छाया भी साथ छोड़ देती है। क्रांतिकारियों के साथ तो यह पूरी तरह सत्य था। जब कभी वे संकट में पड़े, तो उन्हें आश्रय देने के लिए सगे-संबंधी ही तैयार नहीं हुए। क्रांतिवीर पंडित गेंदालाल दीक्षित के प्रसंग से यह भली-भांति समझा जा सकता है।


पंडित गेंदालाल दीक्षित का जन्म 30 नवम्बर, 1888 को उत्तर प्रदेश में आगरा जिले की बाह तहसील के ग्राम मई में हुआ था। आगरा से हाईस्कूल कर वे डी.ए.वी पाठशाला, औरैया में अध्यापक हो गये। बंग-भंग के दिनों में उन्होंने ‘शिवाजी समिति’ बनाकर नवयुवकों में देशप्रेम जाग्रत किया; पर इस दौरान उन्हें शिक्षित, सम्पन्न और तथाकथित उच्च समुदाय से सहयोग नहीं मिला। अतः उन्होंने कुछ डाकुओं से सम्पर्क कर उनके मन में देशप्रेम की भावना जगाई और उनके माध्यम से कुछ धन एकत्र किया। 


इसके बाद गेंदालाल जी अध्ययन के बहाने मुंबई चले गये। वहां से लौटकर ब्रह्मचारी लक्ष्मणानंद के साथ उन्होंने ‘मातृदेवी’ नामक संगठन बनाया और युवकों को शस्त्र चलाना सिखाने लगे। इस दल ने आगे चलकर जो काम किया, वह ‘मैनपुरी षड्यंत्र’ के नाम से प्रसिद्ध है। 

उस दिन 80 क्रांतिकारियों का दल डाका डालने के लिए गया। दुर्भाग्य से उनके साथ एक मुखबिर भी था। उसने शासन को इनके जंगल में ठहरने की जानकारी पहले ही दे रखी थी। अतः 500 पुलिस वालों ने उस क्षेत्र को घेर रखा था। 


जब ये लोग वहां रुके, तो सब बहुत भूखे थे। वह मुखबिर कहीं से जहरीली पूड़ियां ले आया। उन्हें खाते ही कई लोग धराशायी हो गये। मौका पाकर वह मुखबिर भागने लगा। यह देखकर ब्रह्मचारी जी ने उस पर गोली चला दी। गोली की आवाज सुनते ही पुलिस वाले आ गये और फिर सीधा संघर्ष होने लगा, जिसमें दल के 35 व्यक्ति मारे गये। शेष लोग पकड़े गये। 


मुकदमे में एक सरकारी गवाह सोमदेव ने पंडित गेंदालाल दीक्षित को इस सारी योजना का मुखिया बताया। अतः उन्हें मैनपुरी लाया गया। तब तक उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ चुका था। इसके बाद भी वे एक रात मौका पाकर एक अन्य सरकारी गवाह रामनारायण के साथ फरार हो गये।


पंडित जी अपने एक संबंधी के पास कोटा पहुंचे; पर वहां भी उनकी तलाश जारी थी। इसके बाद वे किसी तरह अपने घर पहुंचे; पर वहां घर वालों ने साफ कह दिया कि या तो आप यहां से चले जाएं, अन्यथा हम पुलिस को बुलाते हैं। अतः उन्हें वहां से भी भागना पड़ा। तब तक वे इतने कमजोर हो चुके थे कि दस कदम चलने मात्र से मूर्छित हो जाते थे। किसी तरह वे दिल्ली आकर पेट भरने के लिए एक प्याऊ पर पानी पिलाने की नौकरी करने लगे।


कुछ समय बाद उन्होंने अपने एक संबंधी को पत्र लिखा, जो उनकी पत्नी को लेकर दिल्ली आ गये। तब तक उनकी दशा और बिगड़ चुकी थी। पत्नी यह देखकर रोने लगी। वह बोली कि मेरा अब इस संसार में कौन है ? पंडित जी ने कहा, ‘‘आज देश की लाखों विधवाओं, अनाथों, किसानों और दासता की बेड़ी में जकड़ी भारत माता का कौन है ? जो इन सबका मालिक है, वह तुम्हारी भी रक्षा करेगा।’’


उन्हें सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दिया। वहीं पर मातृभूमि को स्मरण करते हुए उन नरवीर ने 21 दिसम्बर, 1920 को प्राण त्याग दिये।  


(संदर्भ  : मातृवंदना, क्रांतिवीर नमन अंक, मार्च-अपै्रल 2008)

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21 दिसम्बर/इतिहास-स्मृति      


अनंत कान्हरे द्वारा जैक्सन का वध


अंग्रेज शासन में कुछ अधिकारी छोटी-छोटी बात पर बड़ी सजाएं देकर समाज में आतंक फैला रहे थे। इस प्रकार वे कोलकाता, दिल्ली और लंदन में बैठे अधिकारियों की फाइल में अपने नंबर भी बढ़वाना चाहते थे। 


महाराष्ट्र में नासिक का जिलाधीश जैक्सन एक क्रूर अधिकारी था। उसने देशभक्तों का मुकदमा लड़ने वाले वकील सखाराम की जेल में हत्या करा दी। लोकमान्य तिलक को उनके दो लेखों पर सजा दिलवाकर छह वर्ष के लिए जेल भेजा तथा देशप्रेम की कविताएं लिखने के आरोप में श्री गणेश दामोदर सावरकर को आजीवन कारावास की सजा देकर अंदमान भिजवाया था।


इससे नाराज क्रांतिकारियों ने जैक्सन को मारने का निर्णय लिया। इसके लिए सबसे अधिक उत्साह युवा क्रांतिवीर अनंत कान्हरे दिखा रहा था। उसका जन्म 1891 में ग्राम आयटीमेटे खेड़ (औरंगाबाद) में हुआ था। वह ‘अभिनव भारत’ नामक संस्था का सदस्य था। उसके आदर्श मदनलाल धींगरा थे, जिन्होंने लंदन की भरी सभा में कर्जन वायली का वध किया था।


अनंत एक दिलेर युवक था। एक बार उसने यह दिखाने के लिए कि वह किसी भी शारीरिक यातना से विचलित नहीं होगा, जलती हुई चिमनी पर अपनी हथेली रख दी और फिर दो मिनट तक नहीं हटाई। इसी बीच जैक्सन का स्थानांतरण पुणे हो गया। उसके कार्यालय के साथियों ने 21 दिसम्बर, 1909 को नासिक के ‘विजयानंद सभा भवन’ में रात के समय ‘शारदा’ नामक नाटक का कार्यक्रम रखा। इसी में उसे विदाई दी जाने वाली थी। 


क्रांतिकारियों ने इसी सभा में सार्वजनिक रूप से उसे पुरस्कार देने का निर्णय लिया। इसके लिए अनंत कान्हरे, विनायक नारायण देशपांडे तथा कृष्ण गोपाल कर्वे ने जिम्मेदारी ली। 21 दिसम्बर की शाम को देशपांडे के घर सब योजनाकार मिले और तीनों को लंदन से वीर सावरकर द्वारा भेजी तथा चतुर्भुज अमीन द्वारा लाई गयी ब्राउनिंग पिस्तौलें सौंप दी गयीं। 


पहला वार अनंत कान्हरे को करना था, अतः उसे एक निकेल प्लेटेड रिवाल्वर और दिया गया। योजना यह थी कि यदि अनंत का वार खाली गया, तो देशपांडे हमला करेगा। यदि वह भी असफल हुआ तो कर्वे गोली चलाएगा। समय से पूर्व वहां पहुंचकर तीनों ने अपनी स्थिति ले ली। जिस मार्ग से जैक्सन सभागार में आने वाला था, अनंत वहीं एक कुर्सी पर बैठ गया। 


निश्चित समय पर जैक्सन आया। उसके साथ कई लोग थे। आयोजकों ने आगे बढ़कर उसका स्वागत किया। इससे उसके आसपास कुछ भीड़ एकत्र हो गयी; पर जैसे ही वह कुछ आगे बढ़ा, अनंत ने एक गोली चला दी। वह गोली खाली गई। दूसरी गोली जैक्सन की बांह पर लगी और वह धरती पर गिर गया। उसके गिरते ही अनंत ने पूरी पिस्तौल उस पर खाली कर दी। 


जैक्सन की मृत्यु वहीं घटनास्थल पर हो गयी। नासिक से विदाई समारोह में उसे दुनिया से ही विदाई दे दी गयी। लोग कान्हरे पर टूट पड़े और उसे बहुत मारा। कुछ देर बाद पुलिस ने तीनों को गिरफ्तार कर लिया। इन पर जैक्सन की हत्या का मुकदमा चला तथा 19 अपै्रल, 1910 को ठाणे की जेल में तीनों को फांसी दे दी गयी। फांसी के समय अनंत कान्हरे की आयु केवल 18 वर्ष ही थी।


(संदर्भ  : क्रांतिकारी कोश, स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश)

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21 दिसम्बर/जन्म-दिवस      


हिन्दुस्थान समाचार के उद्धारक श्रीकांत जोशी


असम में संघ कार्य सब जिलों तक पहुंचाने वाले श्रीकांत शंकरराव जोशी का जन्म 21 दिसम्बर, 1936 को ग्राम देवरुख (रत्नागिरि, महाराष्ट्र) में हुआ था। उनसे छोटे तीन भाई और एक बहिन थी। मुंबई में बी.ए. करते समय वे स्वयंसेवक बने। कुछ समय जीवन बीमा निगम में काम करने के बाद 1960 में वे तत्कालीन प्रचारक श्री शिवराय तैलंग की प्रेरणा से प्रचारक बने। सर्वप्रथम उन्हें श्री गुरु गोविन्द सिंह जी की पुण्यस्थली नांदेड़ भेजा गया। 


तीन वर्ष बाद उन्हें असम में तेजपुर विभाग प्रचारक बनाकर भेजा गया। इसके बाद वे लगातार 25 वर्ष असम में ही रहे। 1967 में विश्व हिन्दू परिषद ने गुवाहाटी में पूर्वोत्तर की जनजातियों का विशाल सम्मेलन किया। सरसंघचालक श्री गुरुजी तथा वि.हि.प. के महासचिव श्री दादासाहब आप्टे भी इसमें आये थे। कुछ समय बाद विवेकानंद शिला स्मारक (कन्याकुमारी) के लिए धन संग्रह हुआ। असम में इन दोनों कार्यक्रमों के संयोजक श्रीकांत जी ही थे।


उनकी संगठन क्षमता देखकर 1971 में उन्हें असम का प्रांत प्रचारक बनाया गया। 1987 तक उन्होंने इस जिम्मेदारी को निभाया। इस दौरान उन्होंने जहां एक ओर विद्या भारती के माध्यम से सैकड़ों विद्यालय खुलवाये, वहां सभी प्रमुख स्थानों पर संघ कार्यालयों का भी निर्माण कराया।


आज का पूरा पूर्वोत्तर उस दिनों असम प्रांत ही कहलाता था। वहां सैकड़ों जनजातियां, उनकी अलग-अलग भाषा, बोली और रीति-रिवाजों के बीच समन्वय बनाना आसान नहीं था; पर श्रीकांत जी ने प्रमुख जनजातियों के नेताओं के साथ ही सब दलों के राजनेताओं से भी अच्छे सम्बन्ध बना लिये।


1979 से 85 तक असम में घुसपैठ के विरोध में भारी आंदोलन हुआ। आंदोलन के कई नेता बंगलादेश से लुटपिट कर आये हिन्दुओं तथा भारत के अन्य राज्यों से व्यापार या नौकरी के लिए आये लोगों के भी विरोधी थे। अर्थात क्षेत्रीयता का विचार राष्ट्रीयता पर हावी हो रहा था। ऐसे माहौल में श्रीकांत जी ने उन्हें समझा-बुझाकर आंदोलन को भटकने से रोका। इस दौरान उनकी लिखी पुस्तक ‘घुसपैठ: एक निःशब्द आक्रमण’ भी बहुचर्चित हुई।


1987 से 96 तक वे सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस के निजी सचिव रहे। अंतिम दो-तीन वर्षों में उन्होंने एक पुत्र की तरह रोगग्रस्त बालासाहब की सेवा की। 1996 से 98 तक वे अ.भा.प्रचार प्रमुख श्री माधव गोविंद वैद्य के सहायक तथा फिर 2004 तक अ.भा.प्रचार प्रमुख रहे। 


इस दौरान उन्होंने आपातकाल में सरकारी हस्तक्षेप के कारण मृतप्रायः हो चुकी ‘हिन्दुस्थान समाचार’ संवाद समिति को पुनर्जीवित किया। 2001 में जब उन्होंने यह बीड़ा उठाया, तो न केवल संघ के बाहर, अपितु संघ के अंदर भी इसे समर्थन नहीं मिला; पर श्रीकांत जी ने अपने संकल्प पर डटे रहे। आज ‘हिन्दुस्थान समाचार’ के कार्यालय सभी राज्यों में हैं। अन्य संस्थाएं केवल एक या दो भाषाओं में समाचार देती हैं; पर यह संस्था संस्कृत, सिन्धी और नेपाली सहित भारत की प्रायः सभी भाषाओं में समाचार देती है। 


श्रीकांत जी ने भारतीय भाषाओं के पत्रकार तथा लेखकों के लिए कई पुरस्कारों की व्यवस्था कराई। इसके लिए उन्होंने देश भर में घूमकर धन जुटाया तथा कई न्यासों की स्थापना की। एक बार विदेशस्थ एक व्यक्ति ने कुछ शर्ताें के साथ एक बड़ी राशि देनी चाही; पर सिद्धांतनिष्ठ श्रीकांत जी ने उसे ठुकरा दिया। वे बाजारीकरण के कारण मीडिया के गिरते स्तर से बहुत चिंतित थे।


2004 के बाद वे संघ की केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य के नाते प्रचार विभाग के साथ ही सहकार भारती, ग्राहक पंचायत, महिला समन्वय आदि को संभाल रहे थे। आठ जनवरी, 2013 की प्रातः मुंबई में हुए भीषण हृदयाघात से उनका निधन हुआ। 


(पांचजन्य 20.1.13/स्वदेश 9.1.13..आदि)

इस प्रकार के भाव पूण्य संदेश के लेखक एवं भेजने वाले महावीर सिघंल मो 9897230196

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