10 अप्रैल आर्य समाज संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती की जयंती पर विशेष महावीर संगल

 10 अप्रैल/स्थापना-दिवस



महर्षि दयानंद एवं आर्य समाज 


भारत में एक समय वह भी था, जब लोग कर्मकाण्ड को ही हिन्दू धर्म का पर्याय मानने लगे थे। वे धर्म के सही अर्थ से दूर हट गये थे। इसका लाभ उठाकर मिशनरी संस्थाएँ हिन्दुओं के धर्मान्तरण में सक्रिय हो गयीं। भारत पर अनाधिकृत कब्जा किये अंग्रेज उन्हें पूरा सहयोग दे रहे थे। 


यह देखकर स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 10 अप्रैल, 1875 (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, नव संवत्सर) के  शुभ अवसर पर मुम्बई में ‘आर्य समाज’ की स्थापना की। आर्य समाज ने धर्मान्तरण की गति को रोककर परावर्तन की लहर चलायी। इसके साथ उसने आजादी के लिए जो काम किया, वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा है। 


स्वामी दयानन्द का जन्म 12 फरवरी, 1824 को ग्राम टंकारा, काठियावाड़ (गुजरात) में हुआ था। उनके पिता श्री अम्बाशंकर की भगवान भोलेनाथ में बहुत आस्था थी। माता अमृताबाई भी धर्मप्रेमी विदुषी महिला थीं। 


दयानन्द जी का बचपन का नाम मूलशंकर था। 14 वर्ष की अवस्था में घटित एक घटना ने उनका जीवन बदल दिया। महाशिवरात्रि के पर्व पर सभी परिवारजन व्रत, उपवास, पूजा और रात्रि जागरण में लगे थे; पर रात के अन्तिम पहर में सब उनींदे हो गये। इसी समय मूलशंकर ने देखा कि एक चूहा भगवान शंकर की पिण्डी पर खेलते हुए प्रसाद खा रहा है।


मूलशंकर के मन पर इस घटना से बड़ी चोट लगी। उसे लगा कि यह कैसा भगवान है, जो अपनी रक्षा भी नहीं कर सकता ? उन्होंने अपने पिता तथा अन्य परिचितों से इस बारे में पूछा; पर कोई उन्हें सन्तुष्ट नहीं कर सका। उन्होंने संकल्प किया कि वे असली शिव की खोज कर उसी की पूजा करेंगे। वे घर छोड़कर इस खोज में लग गये। 


नर्मदा के तट पर स्वामी पूर्णानन्द से संन्यास की दीक्षा लेकर वे दयानन्द सरस्वती बन गये। कई स्थानों पर भटकने के बाद मथुरा में उनकी भेंट प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द जी से हुई। उन्होंने दयानन्द जी के सब प्रश्नों के समाधानकारक उत्तर दिये। इस प्रकार लम्बी खोज के बाद उन्हें सच्चे गुरु की प्राप्ति हुई।   


स्वामी विरजानन्द के पास रहकर उन्होंने वेदों का गहन अध्ययन और फिर उनका भाष्य किया। गुरुजी ने गुरुदक्षिणा के रूप में उनसे यह वचन लिया कि वे वेदों का ज्ञान देश भर में फैलायेंगे। दयानन्द जी पूरी शक्ति से इसमें लग गये। प्रारम्भ में वे गुजराती और संस्कृत में प्रवचन देते थे; पर फिर उन्हें लगा कि भारत भर में अपनी बात फैलाने के लिए हिन्दी अपनानी होगी। उन्होंने अपना प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ भी हिन्दी में ही लिखा।


‘आर्य समाज’ के माध्यम से उन्होंने हिन्दू धर्म में व्याप्त पाखण्ड और अन्धविश्वासों का विरोध किया। इस बारे में जागरूकता लाने के लिए उन्होंने देश भर का भ्रमण किया। अनेक विद्वानों से उनका शास्त्रार्थ हुआ; पर उनके तर्कों के आगे कोई टिक नहीं पाता था। इससे ‘आर्य समाज’ विख्यात हो गया। स्वामी जी ने बालिका हत्या, बाल विवाह, छुआछूत जैसी कुरीतियों का प्रबल विरोध किया। वे नारी शिक्षा और विधवा विवाह के भी समर्थक थे।


धीरे-धीरे आर्य समाज का विस्तार भारत के साथ ही अन्य अनेक देशों में भी हो गया। शिक्षा के क्षेत्र में आर्य समाज द्वारा संचालित डी.ए.वी. विद्यालयों का बड़ा योगदान है। देश एवं हिन्दू धर्म के उत्थान के लिए जीवन समर्पित करने वाले स्वामी जी को जोधपुर में एक वेश्या के कहने पर जगन्नाथ नामक रसोइये ने दूध में विष दे दिया। इससे 30 अक्तूबर, 1883 (दीपावली) को उनका देहान्त हो गया।

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10 अप्रैल/जन्म-दिवस



अद्भुत कोशकार डा. श्याम बहादुर वर्मा 


बहुमुखी प्रतिभाओं के धनी डा. श्याम बहादुर वर्मा का जन्म 10 अप्रैल, 1932 को आंवला (बरेली, उ.प्र.) में हुआ था। उनकी मां डा. विद्यावती वर्मा होम्योपैथी की सेवाभावी चिकित्सक थीं। बचपन से ही उनमें अधिकतम शिक्षा और ज्ञान प्राप्त करने की भूख थी। 1948 में शाहजहांपुर से बी.एस-सी. करते समय वे संघ पर लगे प्रतिबन्ध के विरोध में सत्याग्रह कर जेल गये।


घर की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण वे पढ़ने के साथ ही ट्यूशन पढ़ाते हुए परिवार को सहारा भी देते थे। 1953 में बरेली काॅलिज से गणित विषय में एम.एस-सी. उत्तीर्ण कर वे अस्कोट (अल्मोड़ा, उत्तराखंड) में पढ़ाने लगे। इसके बाद उनके अध्ययन और अध्यापन की यह यात्रा हल्द्वानी, भोगांव, धामपुर और साहिबाबाद होते हुए दिल्ली तक आ गयी।


उन्होंने संस्कृत, अंग्रेजी, हिन्दी तथा भारतीय इतिहास व संस्कृति में एम.ए. तथा दिल्ली वि0वि0 से ‘हिन्दी काव्य में शक्ति तत्व’ विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। वे सदा प्रथम श्रेणी के विद्यार्थी रहे। बरेली रहते हुए वे ‘साहित्य रत्न’ और ‘आयुर्वेद रत्न’ की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर चुके थे। 


बरेली में उन्होंने ‘भारतीय अनुशीलन परिषद’ का गठन किया था। इसके पुस्तकालय, व्याख्यानमाला तथा अन्य कार्यक्रमों द्वारा उन्होंने सभी आयु-वर्ग के लोगों का परिचय भारतीय इतिहास और संस्कृति से कराया। 1953 में उन्होंने अकेले ही हिमालय को पैदल पारकर तिब्बत की यात्रा भी की थी। 


भारत और भारतीयता के पुजारी डा0 वर्मा सदा धोती-कुर्ता ही पहनते थे। संघ के काम और ज्ञान की भूख के कारण उन्होंने विवाह भी नहीं किया। दिल्ली में वे ‘अ.भा.साहित्य परिषद’ और ‘विश्व हिन्दू परिषद’ में भी सक्रिय हुए। ‘विवेकानंद केन्द्र’ की मासिक पत्रिका ‘केन्द्र भारती’ का उन्होंने कई वर्ष सम्पादन किया। इसके साथ ही वे कई पत्र-पत्रिकाओं के नियमित लेखक भी थे। हिन्दी अकादमी, दिल्ली ने उन्हें ‘साहित्यकार सम्मान’ प्रदान किया था। 


1972 में महर्षि अरविन्द के जन्मशती वर्ष में उन्होंने क्रांतियोगी श्री अरविन्द, महायोगी श्री अरविन्द, श्री अरविन्द साहित्य दर्शन तथा श्री अरविन्द विचार दर्शन नामक चार पुस्तकों की रचना की। भारत के मेले, हमारे सांस्कृतिक प्रतीक, भारत का संविधान, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, राष्ट्र-निर्माता स्वामी विवेकानंद उनकी अन्य कृतियां हैं। विश्व हिन्दू परिषद के विचारों के प्रचार के लिए उन्होंने अनेक छोटी-छोटी पुस्तिकाएं भी लिखीं।


लेकिन डा. श्याम बहादुर वर्मा का सबसे महत्वपूर्ण कार्य उनके द्वारा निर्मित बृहत् कोश हैं। उन्होंने तीन खंड और बड़े आकार के 2,000 पृष्ठों में ‘विश्व सूक्ति कोश’ का निर्माण किया। लेखक, पत्रकार तथा पत्र-पत्रिकाओं के संदर्भ के लिए यह अद्भुत कोश है। इसमें लगभग सभी प्रमुख विषयों पर प्रख्यात लोगों द्वारा कहे हुए वाक्य तथा सूक्तियां मिलती हैं। 


इसे पूरा कर वे आधुनिक शैली के ‘बृहत् हिन्दी शब्दकोश’ के निर्माण में जुट गये। 19 वर्ष की साधना के बाद दो खंडों में प्रकाशित बड़े आकार के 3,000 पृष्ठों वाला यह ग्रन्थ हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि है। इसके बाद वे एक विशाल चरित्रकोश की योजना बना रहे थे; पर विधि ने यह अवसर नहीं दिया और 20 नवम्बर, 2009 को हुए हृदयाघात से उनका निधन हो गया।


बौद्धिक साधना में लीन डा. श्याम बहादुर वर्मा के पास पुस्तकों का विशाल भंडार था। उन्हें बड़ी चिन्ता थी कि उनके बाद इसका क्या होगा ? उन्हें इस बात का भी बहुत कष्ट था कि लोग पुस्तकालयों में अब ज्ञान प्राप्ति के लिए नहीं, अपितु डिग्री दिलाने में सहायक पुस्तकें पढ़ने के लिए ही आते हैं। 


(संदर्भ : पांचजन्य 6.12.2009/बृहत् हिन्दी शब्दकोश)

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10 अप्रैल/जन्म-दिवस


घोष को समर्पित सुब्बू श्रीनिवास


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के काम में शाखा का और शाखा में शारीरिक कार्यक्रमों का बड़ा महत्व है। शाखा पर खेल के साथ ही पथ संचलन का अभ्यास भी होता है। जब स्वयंसेवक घोष (बैंड) की धुन पर कदम मिलाकर चलते हैं, तो चलने वालों के साथ ही देखने वाले भी झूम उठते हैं। 


घोष विभाग के विकास में अपना पूरा जीवन खपा देने वाले श्री सुब्बू श्रीनिवास का जन्म 10 अपै्रल, 1940 को मैसूर (कर्नाटक) में एक सामान्य दुकानदार श्री बी.जी.सुब्रह्मण्यम तथा श्रीमती शुभम्म के घर में हुआ। सात भाई-बहिनों में वे सबसे छोटे थे। अपने बड़े भाई अनंत के साथ 1952 में वे भी शाखा जाने लगे। पढ़ाई में उनका मन बहुत नहीं लगता था। अतः जैसे-तैसे उन्होंने मैट्रिक तक की शिक्षा पूर्ण की। उनकी शाखा में ही बड़ी कक्षा में एक मेधावी छात्र श्रीपति शास्त्री भी आते थे, जो आगे चलकर संघ के केन्द्रीय अधिकारी बने। उनके सहयोग से सुब्बू परीक्षा में उत्तीर्ण होते रहे।


1962 में कर्नाटक प्रांत प्रचारक श्री यादवराव जोशी की प्रेरणा से सुब्बू प्रचारक बने। उनके बड़े भाई अनंत ने यह आश्वासन दिया कि घर का सब काम वे संभाल लेंगे। प्रचारक बनने के बाद उन्होंने क्रमशः तीनों संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण प्राप्त किया। पुणे में 1932 से एक घोष शाखा लगती थी। घोष में रुचि होने के कारण उन्होंने छह माह तक वहां रहकर इसका सघन प्रशिक्षण लिया और फिर वे कर्नाटक प्रांत के ‘घोष प्रमुख’ बनाये गये। 


संघ के घोष की रचनाएं सेना से ली गयी थीं, जो अंग्रेजी ढंग से बजाई जाती थीं। घोष प्रमुख बनने के बाद सुब्बू ने इनके शब्द, स्वर तथा लिपि का भारतीयकरण किया। वे देश भर में घूमकर इस विषय के विशेषज्ञों से मिले। इससे कुछ सालों में ही घोष पूरी तरह बदल गया। उन्होंने अनेक नई रचनाएं बनाकर उन्हें ‘नंदन’ नामक पुस्तक में छपवाया। टेप, सी.डी. तथा अतंरजाल के माध्यम से क्रमशः ये रचनाएं देश भर में लोकप्रिय हो गयीं।


पथ संचलन में घोष दल तथा उसके प्रमुख द्वारा घोष दंड का संचालन आकर्षण का एक प्रमुख केन्द्र होता है। सुब्बू जब तरह-तरह से घोष दंड घुमाते थे, जो दर्शक दंग रह जाते थे। 20-25 फुट की ऊंचाई तक घोष दंड फेंककर उसे फिर पकड़ना उनके लिए सहज था। मुख्यतः शंखवादक होने के बाद भी वे हर वाद्य को पूरी कुशलता से बजा लेते थे। 


1962 में श्री गुरुजी के आगमन पर हुए एक कार्यक्रम में ध्वजारोहण के समय उन्होेंने शंख बजाया। उसे सुनकर अध्यक्षता कर रहे पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल करियप्पा ने कहा कि उन्होंने सेना में भी इतना अच्छा स्वर कभी नहीं सुना। सुब्बू ने उत्तर प्रदेश में मुरादाबाद, अलीगढ़, मेरठ आदि स्थानों पर कारीगरों के पास घंटों बैठकर घोष दंड तथा वाद्यों में आवश्यक सुधार भी कराये। 


जब घोष विभाग को एक स्वतन्त्र विभाग बनाया गया, तो उन्हें अखिल भारतीय घोष प्रमुख की जिम्मेदारी दी गयी। इससे उनकी भागदौड़ बहुत बढ़ गयी। उन्होंने देश के हर प्रांत में घोष वादकों के शिविर लगाये, इससे कुछ ही वर्षों में हजारों नये वादक और घोष प्रमुख तैयार हो गये। 


पर प्रवास की अव्यवस्था, परिश्रम और भागदौड़ का दुष्प्रभाव उनके शरीर पर हुआ और वे मधुमेह तथा अन्य कई रोगों के शिकार हो गये। इसके बाद भी वे प्रवास करते रहे; पर अंततः उनके शरीर ने जवाब दे दिया और 18 जनवरी, 2005 को उनका स्वर सदा के लिए घोष-निनाद में विलीन हो गया। 


(संदर्भ : घोष तपस्वी, साहित्य संगम, बंगलौर - दु.गु.लक्ष्मण)

...............................इस प्रकार के भाव पूण्य संदेश के लेखक एवं भेजने वाले महावीर सिघंल मो 9897230196

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